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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क अक्षरों या मात्राओं का एक निश्चित प्रमाण होता है।
१६ अरब, ३४ करोड़, ८३ लाख, ७ हजार ८ सौ ८८ अक्षरों का एक मध्यम-पद होता है। इतने अक्षरों से ५१०८८४६२१ अनुष्टुप् छन्द बनते हैं। मध्यम पद की गणना से यदि स्थानांग की पद संख्या ४२००० मान ली जाय तो सम्भवत: पूरे जीवन में कोई मुनीश्वर स्थानांग का भी अध्ययन न कर पाएगा! परन्तु शास्त्रकारों ने लिखा है कि धन्ना अनगार ने नौ मास में
और अर्जुन मुनि ने छः महीने में ११ अंगों का अध्ययन कर लिया था। मध्यम पद-परिमाण मान लेने पर यह उल्लेख सर्वथा असम्भव सा लगता है, अत: सुबन्त तिङन्त को पद मानकर की जाने वाली गणना कुछ बुद्धि गम्य हो सकती है। इस दृष्टि से स्थानांग की पद संख्या ७२००० स्वीकार की जा सकती है।
श्री अभयदेव सूरि कृत व्याख्या-सहित आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित स्थानांग सूत्र में जो संख्या दी गई है वह सूत्र संख्या ७८३ ही है। '
बत्तीस अक्षरों से निर्दिष्ट श्लोक परिमाण को प्राचीन लिपिकार 'ग्रन्थान' कहा करते थे और वे इसी ग्रन्थान परिमाण से लेखन का पारिश्रमिक लिया करते थे। ग्रन्थान की दृष्टि से आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित स्थानांग की श्लोक संख्या ३७०० दी गई है (पृष्ठ ५२६) परन्तु भण्डारकर
ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वॉल्यूम १७ के १-३ भागों में निर्दिष्ट स्थानांग की प्रतियों में ग्रन्थान संख्या ३७७० तथा ३७५० दी गई है। इस प्रकार यहाँ श्लोक संख्या में ऐक्य प्रतीत नहीं होता है। शैली
समवायांग के समान स्थानांग सूत्र का गुम्फन संग्रह-प्रधान कोष शैली में हुआ है। कण्ठस्थ करने की सुविधा की दृष्टि से बहुत प्राचीन काल से भारतीय साहित्यकार इस शैली का प्रयोग करते आए हैं। महाभारत में वन पर्व अध्याय १३४ में तथा अंगुत्तर निकाय आदि बौद्ध ग्रन्थों में इसी शैली का प्रयोग किया गया है।
प्रथम स्थान में एक संख्यक वस्तुओं एवं क्रियाओं आदि का परिचय होने से उसे 'एक स्थान' या प्रथम स्थान कहा गया है। द्वितीय स्थान में दो संख्यक और तृतीय स्थान में तीन संख्यक। इसी प्रकार क्रमश: बढ़ते हुए अन्त के दसवें स्थान में दस संख्यक तत्त्वों का परिचयात्मक निरूपण किया गया है। द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ स्थान को विषय-विभाग की दृष्टि से ४-४ उद्देशकों में और पंचम स्थान को तीन उद्देशकों में विभक्त कर दिया गया है।
जैनागमों की यह एक अपनी विशिष्ट शैली रही है कि यदि किसी एक शास्त्र में किसी विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा चुका है तब
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