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________________ 138 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क चतुर्थ उद्देशक - इसमें प्रसर्पक सूत्र, आहार सूत्र, वणकर सूत्र, काम सूत्र आदि ५६ सूत्रों का वर्णन है । प्रस्तुत उद्देशक के वृक्ष विक्रिया सूत्र में वृक्षों की विकरण रूप विक्रिया चार प्रकार की कही गयी हैं। जैसे- १. प्रवाल (कोंपल) के रूप में २. पत्र के रूप में ३. पुष्प के रूप में और ४. फल के रूप में २४ (5) पंचम स्थान इसमें पाँच की संख्या से संबंधित विषयों का समावेश है, जिनमें सैद्धान्तिक, तात्त्विक, दार्शनिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष्क, योग आदि अनेक विषयों का वर्णन है।" पंचम स्थान के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक- इसमें महाव्रत, अणुव्रत, इन्द्रिय विषय, प्रतिमा, देव आदि ३० विषयों का वर्णन है । प्रस्तुत सूत्र में राजचिह्न सूत्र पाँच प्रकार के कहे गये हैं जैसे - १. खड्ग २ . छत्र ३. उष्णीष ४. उपानह और ५. बाल व्यजन । द्वितीय उद्देशक - इसमें महानदी, उत्तरण सूत्र, वर्षावास सूत्र, व्यवहार सूत्र, परिज्ञा सूत्र आदि ३४ सूत्रों का वर्णन है । प्रस्तुत उद्देशक के परिज्ञा सूत्र में परिज्ञा पांच प्रकार की कही गयी है जैसे- १. उपधि परिज्ञा २ . उपाश्रय परिज्ञा ३. कषाय परिज्ञा ४. योग परिज्ञा और ५. भक्त पान परिज्ञा । २६ तृतीय उद्देशक- इसमें अस्तिकाय सूत्र, गीत सूत्र, इन्द्रियार्थ सूत्र, मुंड आदि ४० स्थानों का वर्णन है । प्रस्तुत उद्देशक के गति सूत्र में गतियों के प्रकारों का उल्लेख है- १ . नरक गति २ तिर्यंच गति ३. मनुष्य गति ४. देव गति और सिद्ध गति । .२८ ५. (6) षष्ठ स्थान इसमें छह-छह संख्या से निबद्ध अनेक विषय संकलित हैं। प्रस्तुत स्थान में एक उद्देशक है । साधु-साध्वियों की समाचारी के लिये यह स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें उनकी चर्याओं का विस्तार से वर्णन है। साथ ही इसमें सैद्धान्तिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष्क, भौगोलिक, आयुर्वेद, विवाद पद आदि अनेक स्थानों की जानकारी भी दी गई है। प्रस्तुत स्थान में ६६ स्थानों/विषयों का उल्लेख है । जिनमें गण - धारण-सूत्र, निर्ग्रन्थी अवलम्बन सूत्र, गति - आगति सूत्र भी है। इसी के असंभव सूत्र में बताया गया है कि सभी जीवों में छह कार्य करने की न ऋद्धि, न द्युति, न यश, न बल, न वीर्य, न पुरस्कार और न ही पराक्रम है, जैसे- १. जीव को अजीव करना २. अजीव को जीव करना ३. एक समय में दो भाषा बोलना ४. स्वयंकृत कर्म को वेदन करना या वेदन नहीं करना, ५ . पुद्गल परमाणु का छेदन या भेदन करना या अग्निकाय में जलाना और ६. लोकान्त से बाहर जाना ।" (7) सप्तम स्थान प्रस्तुत सप्तम स्थान में सात की संख्या से संबद्ध विषयों का संकलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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