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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क
बंधा हुआ न रहे।
१०. मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में प्रगति करे एवं अडिग रहे। चूंकि चारित्र कर्मानव के निरोध का, परम संवर का एवं मोक्षमार्ग का साक्षात्
और प्रधान कारण है इसलिए सूत्रकार ने चारित्र शुद्धि के लिये उपदेश दिया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग (प्रथम अध्ययन के प्रथम से लेकर चौथे उद्देशक तक) में भारतीय दर्शन में वर्णित प्राय: सभी मतवादों का कुशल समावेश कर उनकी मीमांसा की गई है। ऐसा कोई मतवाद नहीं है जिसे सूत्रकार की पैनी दृष्टि ने स्पर्श न किया हो। यद्यपि सूत्रकार ने किसी भी सम्प्रदाय विशेष का नामोल्लेख नहीं किया है, केवल उनके दार्शनिक मन्तव्यों को ही आधार मानकर स्वपक्षमण्डन व परपक्ष निरसन किया है, फिर भी वह अपने उद्देश्य में सर्वथा सफल रहा है। सम्प्रदायों का स्पष्ट नामोल्लेख न मिलने का कारण बहुत कुछ सीमा तक उन-उन मतवादों का उस समय तक पूर्णरूपेण विकसित न होना माना जा सकता है। बाद के टीकाकारों व नियुक्तिकारों ने दार्शनिक मन्तव्यों का सम्प्रदाय विशेष सहित उल्लेख किया है।
जहाँ तक इसमें अन्तर्निहित दार्शनिक विवेचना का प्रश्न है, सूत्रकार ने जिन मतवादों का उल्लेख किया है, उन्हें अपने अनेकान्तवाद व कर्मवादप्रवण अहिंसा की कसौटी पर कसते हुए यही बताने का प्रयास किया है, कि चाहे वह वैदिक दर्शन का कूटस्थ आत्मवाद हो, बौद्धों का क्षणिकवाद हो, लोकायतों का भौतिकवाद हो, सांख्यों का अकर्तावाद हो या नियतिवादियों का नियतिवाद हो- कोई भी दर्शन हमारे सतत अनुभव, व्यक्तित्व की एकता एवं हमारे चेतनामय जीवन की, जो सतत परिवर्तनशील है, सम्पूर्ण दृष्टि से समुचित व्याख्या नहीं कर पाता। यह जैनदर्शन की अनेकान्तवादी दृष्टि ही है जो एकान्त शाश्वतवाद एवं एकान्त उच्छेदवाद के मध्य आनुभाविक स्तर पर एक यथार्थ समन्वय प्रस्तुत कर सकती है तथा नैतिक एवं धार्मिक जीवन की तर्कसंगत व्याख्या कर सकती
है।
संदर्भ १. सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा-१८-२० तथा उनकी शीलांक वृत्ति २. सूत्रकृतांग गाथा १ (सं. व अनु. मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
१९८२) ३. उत्तराध्ययनसूत्र ८.१५ ४. बध्यतेऽनेन बंधनमात्रं वा बंध:-तत्त्वार्थवार्तिक भाग१, पृ. २६, भट्ट अकलंकदेव,
सम्पा. महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि.नि. सं. २४९९ ५. सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः। ---तत्त्वार्थ सूत्र ८.२ ६. पं. सुखलाल संघवी, भारत जैन महामण्डल, वर्धा १९५२
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