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सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार
उत्पत्ति ।
परवादी निरसन - इन्द्रियसुखोपभोग एवं स्वसिद्धान्त को सर्वोपरि मानने वाले दार्शनिक मतवादों की ग्रन्थकार भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि ये एकान्त दर्शनों, दृष्टियों, वादों को सत्य मानकर उनकी शरण लेकर एवं कर्मबंधों से निश्चिन्त होकर एवं पाप कर्मों में आसक्त होकर आचरण करते हैं। इनकी गति संसार-सागर पार होने की आशा में मिथ्यात्व, अविरति आदि छिद्रों के कारण कर्मजल प्रविष्ट हो जाने वाली मिथ्यादृष्टियुक्त मतनौका में आरूढ़ मतमोहान्ध व्यक्ति की होती है जो बीच में ही डूब जाते हैं अर्थात् मिथ्यात्वयुक्त मत सछिद्र नौका के समान है और इसका आचरण करने वाला व्यक्ति जन्मान्ध के समान है।
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लोकवाद समीक्षा- लोकवादियों का तात्पर्य पौराणिक मतवादियों से है। महावीर के युग में पौराणिकों का बहुत जोर था । लोग पौराणिकों को सर्वज्ञ मानते थे, उनसे आगम-निगम, लोक-परलोक के रहस्य, प्राणी के मरणोत्तर दशा की अथवा प्रत्यक्ष दृश्यमान लोक की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय की बहुत चर्चाएं करते थे। भगवान महावीर के युग में पूरणकाश्यप, मंक्खलिगोशाल, अजितकेशकम्बल, पकुद्धकात्यायन, गौतमबुद्ध, संजयवेलट्ठिपुत्त एवं कई तीर्थंकर थे जो सर्वज्ञ कहे जाते थे। शास्त्रकार ने इन मतवादियों के सिद्धान्त पर निम्न दृष्टियों से विचार किया है- १. लोकवाद कितना हेय व उपादेय है, २. यह लोक अनन्त, नित्य एवं शाश्वत है या अविनाशी है या अन्तवान किन्तु नित्य है । ३. क्या पौराणिकों आदि का अवतार लोकवादी है एवं ४. त्रस, त्रस योनि में ही और स्थावर, स्थावर योनि में ही संक्रमण करते हैं।
लोकवादी मान्यता का खण्डन
लोकवादियों की मान्यता कि लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत एवं अविनाशी है, का खण्डन करते हुए जैनदार्शनिक कहते हैं कि यदि लोकगत पदार्थों को कूटस्थ नित्य (विनाश रहित स्थिर) मानते हैं तो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है, क्योंकि इस जगत् में जड़-चेतन कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील न हो, पर्याय रूप से वह सदैव उत्पन्न व विनष्ट होते दीखता है। अतः लोकगत पदार्थ सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं हो सकते। दूसरे लोकवादियों की यह मान्यता सर्वथा अयुक्त है कि त्रस सदैव स पदार्थ में ही उत्पन्न होता है, पुरुष, मरणोपरान्त पुरुष एवं स्त्री मरणोपरान्त स्त्री ही होती है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि स्थावर जीव त्रस के रूप में और सजीव स्थावर के रूप में अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं। यदि लोकवाद को सत्य माना जाय कि जो इस जगत् में जैसा है, वह उस
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