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________________ 116 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क धर्म हैं तो मृत शरीर में भी रूपादि गुणों की भांति चेतना विद्यमान होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है। शरीरात्मवादियों के 'किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत्' के दृष्टान्त की विषमता सिद्ध करते हुए कहा गया है कि मदिरा के घटक में ही मदिरा रहती है, परन्तु किसी भी भूत में चैतन्य नहीं रहता । अतः यह मत असंगत है। नियुक्तिकार का कथन है कि यदि देह के विनाश के साथ आत्मा का विनाश माना जाय तो मोक्षप्राप्ति के लिये किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम, व्रत, नियम, साधना आदि निष्फल हो जायेंगे। अतः पंचमहाभूतवाद का सिद्धान्त मिथ्यात्वग्रस्त एवं अज्ञानमूलक है। २७ २८ शास्त्रकार एकात्मवाद - वेदान्ती ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त पदार्थों को असत्य मानते हैं, दूसरे शब्दों में चेतन-अचेतन सब ब्रह्म (आत्मा) रूप है । कहते हैं कि नाना रूप में भासित पदार्थों को भी एकात्मवादी दृष्टान्त द्वारा आत्मरूप सिद्ध करते हैं। जैसे पृथ्वी समुदाय रूप पिण्ड एक होते हुय भी नदी, समुद्र, पर्वत, नगर, घट आदि के रूप में नाना प्रकार का दिखाई देता है, किन्तु इन सब भेदों के बावजूद इनमें व्याप्त पृथ्वी तत्त्व का भेद नहीं होता । उसी प्रकार एक ज्ञान पिण्ड आत्मा ही चेतन-अचेतन रूप समग्रलोक में पृथ्वी, जल आदि भूतों के आकार में नानाविध दिखाई देता है, परन्तु आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता। वह प्राणातिपात हिंसा में आसक्त स्वयं पाप करके दुःख को आमंत्रित करता है, क्योंकि एकात्मवाद की कल्पना युक्ति रहित है। अनुभव से यह सिद्ध है कि सावद्य अनुष्ठान करने में जो आसक्त रहते हैं, वे ही पापकर्म के फलस्वरूप नरकादि को भोगते हैं, दूसरे नहीं । सूत्रकृतांग एकात्मवाद को युक्तिहीन बताते हुए उसका खण्डन करता है १. उसके अनुसार एकात्मवाद में एक के द्वारा किये गये शुभ या अशुभ कर्म का फल दूसरे सभी को भोगना पड़ेगा जो कि अनुचित एवं अयुक्तियुक्त है। २. एकात्मवाद में एक के कर्मबन्धन होने पर सभी कर्म बंधन से बद्ध और एक के मुक्त होने पर सभी मुक्त हो जायेंगे और इस प्रकार बंधन एवं मोक्ष की अव्यवस्था हो जायेगी । ३. एकात्मवाद में देवदत्त को प्राप्त ज्ञान यज्ञदत्त को होना चाहिए एवं उसी प्रकार एक के जन्म लेने या मरने पर सभी का जन्म लेना या मरना सिद्ध होगा जो कथमपि संभव नहीं है। ४. इसके अतिरिक्त जड़ और चेतन सभी में एक ही आत्मा मानने पर जड़ व चैतन्य में भेद ही नहीं रह जायेगा तथा जिसे शास्त्र का उपदेश दिया जाता है एवं जो शास्त्र का उपदेष्टा है दोनों में भेद न हो सकने के कारण शास्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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