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सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार
डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय द्वितीय अंग आगम सूत्रकृतांग सूत्र में बंधन से मुक्त होने का मार्ग प्रस्तुत करते हुए अपरिग्रह, अहिंसा, प्रत्याख्यान आदि आचार-सिद्धान्तों को अपनाने पर बल प्रदान करने के साथ तत्कालीन विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का उल्लेख कर उनका निराकरण भी किया गया है। डॉ. पाण्डेय ने अपने लेख में सूत्रकृतांग में चर्चित दार्शनिक मान्यताओं का व्यवस्थित विवेचन किया है। उनका आलेख मुख्यत: इस सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन पर आधृत है। इस अध्ययन में आए धर्म एवं आचार संबंधी विषयों को भी उन्होंने विवेचना की है। -सम्पादक
समग्र भारतीय संस्कृति एवं विचारधारा का मुख्य लक्ष्य आध्यात्मिक विकास एवं लोक कल्याण रहा है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन, जिसका मूल स्वर अध्यात्मवाद है, की रुचि किसी काल्पनिक एकांत में न होकर मानव समुदाय के कल्याण में रही है। भारतीय दर्शन की दो प्रमुख धाराओं– वैदिक एवं अवैदिक में से, अवैदिक धारा के प्रतिनिधि जैनदर्शन में आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद एवं मोक्षवाद का विशद विवेचन मिलता है। इन चारों सिद्धान्तों में भारतीय दर्शनों की मूल प्रवृत्तियां समाविष्ट हैं। भारतीय परम्परा के अनुरूप जैन दर्शन भी लौकिक जीवन को दुःखमय मानते हुए दुःखों से आत्यंतिक निवृत्ति को ही अपना लक्ष्य मानता है।
आगम ही जैन परम्परा के वेद एवं पिटक हैं। ये अंग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, चूलिका एवं प्रकीर्णकों में वर्गीकृत हैं। समस्त जैन सिद्धान्त बीजरूप में इनमें निहित हैं। काल की दृष्टि से अंग प्राचीनतम हैं। वर्तमान उपलब्ध ११ अंगों में सूत्रकृतांग द्वितीय है। यह ग्रन्थ स्वसमय (स्वसिद्धान्त)
और पर समय (पर सिद्धान्त) का ज्ञान (सत्यासत्य दर्शन) कराने वाला शास्त्र है। श्रुतपारगामी आचार्य भद्रबाहु ने इसे श्रुत्वाकृत= सूतकडं अर्थात् तीर्थकर वाणी सुनकर गणधरों द्वारा शास्त्ररूप प्रदत्त बताया है। इसमें तत्कालीन अन्य दार्शनिक मतों की युक्तिरहित अयथार्थ मान्यताओं का उल्लेख तथा निरसन तो किया गया है, परन्तु किसी मत के प्रवर्तक का नामोल्लेख नहीं है। मिथ्या व अयथार्थ धारणाओं को बंधन मानकर साधक को सत्य का यथार्थ परिबोध कराना शास्त्रकार का मुख्य ध्येय है। सूत्रकृतांग की प्रमुख विशेषता दर्शन के साथ जीवन व्यवहार का उच्च आदर्श स्थापित करना है।
सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में मुख्यत: अन्य मतवादों का खण्डन किया गया है जो दूसरे श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में भी वर्णित हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध जो अधिकांशत: गद्य में है लगभग उन्हीं विषयों की व्याख्या करता है जो प्रथम श्रुतस्कंध में हैं। दूसरे शब्दों में इसे प्रथम श्रुतस्कंध का पूरक कहा जा सकता है। दूसरे श्रुतस्कंध में मुख्यत: नवदीक्षित श्रमणों के आचार का वर्णन है।
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