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________________ | सूचकृत्तांग का वर्ण्य विषय एवं वैशिष्ट्य 109 सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। नियुक्तिकार ने गाथा का अर्थ किया है जिसका मधुरता से गान किया जा सके, वह गाथा है। जिसमें अर्थ की बहुलता हो, वह गाथा है या छन्द द्वारा जिसकी योजना की गई हो, वह गाथा है। इसमें साधु के माहण, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ ये चार नाम देकर उनकी व्याख्या की गई है। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन में विषयों का वर्णन किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध इसके प्रथम अध्ययन का नाम 'पुण्डरीक' है। इसमें बताया गया है कि यह संसार पुष्करिणी है। इसमें कर्मरूप जल एवं काम भोग का कीचड़ भरा है। उसके मध्य में एक पुण्डरीक (कमल) है। उस कमल को अनासक्त, नि:स्पृह और अहिंसादि महाव्रतों का पालन करने वाले साधक ही प्राप्त कर सकते हैं। द्वितीय अध्ययन का नाम "क्रिया स्थान' है। यहां धर्म क्रिया का वर्णन करके धर्म क्रिया की प्रेरणा दी गई है। तृतीय अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है। इसमें आहार की विस्तृत चर्चा है। श्रमणों को संयम पूर्वक आहार ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई चतुर्थ अध्ययन का नाम 'प्रत्याख्यान परिज्ञा' है। इसमें जीवन को मर्यादित बनाने के लिए प्रत्याख्यान रूप क्रिया की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। पांचवे अध्ययन के 'आचार श्रुत' व 'अणगार श्रुत' ये दो नाम उपलब्ध होते हैं। इसमें बताया गया है कि आचार के सम्यक् पालन के लिए बहुश्रुत होना आवश्यक है। साथ ही श्रमण को अमुक अमुक प्रकार की भाषा न बोलने का भी निर्देश है। छठा अध्ययन 'आर्द्रकीय' है। इसमें अनार्य देश में उत्पन्न राजकुमार आर्द्रक के जैन मुनि बनने का उल्लेख करने के पश्चात् उनके द्वारा गोशालक, हस्ती तापस आदि के मतों का निरसन किया गया है। सातवें अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' है। इस अध्ययन में गणधर गौतम का पाश्र्वापत्यिक पेढ़ाल पुत्र के साथ मधुर संवाद है। पेढ़ाल पुत्र चातुर्याम धर्म को छोड़कर पंचयाम धर्म स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि सूत्रकृतांग में महत्त्वपूर्ण दार्शनिक चर्चाएँ हुई हैं। साथ ही आध्यात्मिक सिद्धान्तों को जीवन में ढ़ालने एवं अन्य मतों का परित्याग कर शुद्ध श्रमणाचार का पालन करने की प्रेरणा भी दी गई है। भगवान महावीर के समय किस-किस कोटि की परम्पराएँ उस समय विद्यमान थी? उनके धार्मिक उपादान क्या थे? इत्यादि बातों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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