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आचारांग सूत्र का मुख्य संदेश : अहिंसा
और असंगता
श्रीचन्द, सुराणा 'सरस आचारांगसूत्र में साधना के सूत्र बिखरे पड़े हैं। जैन ग्रन्थों के प्रसिद्ध सम्पादक श्री श्रीचन्द जी सुराणा 'सरस' ने अपने आलेख में आचारांग की विषयवस्तु की संक्षेप में चर्चा करते हुए अहिंसा एवं असंगता के संदेश को उजागर किया है।--सम्पादक
आचारांग सूत्र एक ऐसा क्षीर समुद्र है जिसमें स्वाध्याय द्वारा जब भी अवगाहन / निमज्जन करता हूँ तो कोई न कोई दिव्य मणि हाथ लग ही जाती
अंग सूत्रों में यह पहला अंग है, किन्तु इससे भी बड़ी बात आचार्य भद्रबाहु ने कही है कि यह समूचे अंग सूत्रों का सार है- अंगाणं किं सारो? आयारो। इसका प्रतीकात्मक अर्थ इतना ही नहीं है कि 'आचार' अंग सूत्रों का सार है, किन्तु इस सम्पूर्ण आगम को लक्ष्य करके भी यह कहा गया है कि इसमें आचार-विचार, ध्यान-समाधि आदि सभी विषयों का चिन्तन बीज रूप में सन्निहित है। प्राचीन मान्यता है कि इस एक आगम का परिशीलन/अनुशीलन कर लेने पर सम्पूर्ण अंग सूत्रों के रहस्य ज्ञान की चाबी हाथ लग जाती है। अगर इस आगम का स्वाध्याय नहीं किया तो वह मुनि श्रमण धर्म का ज्ञाता नहीं कहलाता, न ही वह आचारधर बनता है, न ही गणिपद का पात्र बन सकता है।
__ "आयारम्मि अहीए ज नाओ होइ समणधम्मो उ।
तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ।।" -नियुक्ति 10 नियुक्ति एवं टीका आदि के अनुसार आचारांग के १८ हजार पद हैं। संभवत: रचना काल में इतने पद रहे होंगे, किन्तु आज तो बहुत कम पद बचे हैं। इसका अर्थ है आचारांग का बहुत बड़ा भाग विच्छिन्न हो गया है। विक्रम की प्रथम शताब्दी तक इसका महापरिज्ञा अध्ययन विद्यमान था, जो आज उपलब्ध नहीं है। आचार्य वज्रस्वामी ने उससे गगनगामिनी विद्या उद्धृत की थी (आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति) किन्तु टीकाकार अभयदेव सूरि (आठवीं शताब्दी) के पूर्व वह भी विच्छिन्न हो चुका था(अभयदेव वृत्ति)। चूर्णि के अनुसार महापरिज्ञा अध्ययन में अनेक विद्याएँ, मंत्र आदि का वर्णन व साधना विधियाँ थी। काल प्रभाव से उनका अध्ययन अनुपयुक्त समझा गया, इसलिए तात्कालिक आचार्यों ने उसको असमनुज्ञात कहकर पठन-पाठन निषिद्ध कर दिया। इतना सबकुछ लुप्त--विलुप्त हो जाने के पश्चात् भी आचारांग आज जितना बचा है, वह भी बहुत है। महासमुद्र से कितने ही रत्न निकाल लिये जायें वह तो रत्नाकर ही रहता है उसका भण्डार रिक्त नहीं होता। आचारांग के संबंध में भी यही कहा जा सकता है।
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