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आचारांग सूत्र में मूल्यात्मक चेतना
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वध
(रागद्वेषात्मक भाव) नष्ट नहीं होते हैं (७८) । अतः इन्द्रिय विषय में अनासक्ति साधना के लिए आवश्यक है। यहीं से संयम की यात्रा प्रारम्भ होती है (५३) आचारांग का कथन है कि हे मनुष्य! तू अनासक्त हो जा और अपने को नियन्त्रित कर (७६) । जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी लकड़ियों को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार अनासक्त व्यक्ति राग-द्वेष को नष्ट कर देता है (७६) । ३. कषाएँ मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट कर देती हैं। कषायों का राजा मोह है। जो एक मोह को नष्ट कर देता है, वह बहुत कषायों को नष्ट कर देता है (६९)। अहंकार मृदु सामाजिक संबंधों तथा आत्म-विकास का शत्रु है। कहा है कि उत्थान का अहंकार होने पर मनुष्य मूढ़ बन जाता है (९१) । जो क्रोध आदि कषायों को तथा अहंकार को नष्ट करके चलता है, वह संसार-प्रवाह को नष्ट कर देता है (६२--७०) । ४. मानव समाज में न कोई नीच है और न कोई उच्च है (३४) । सभी के साथ समतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए। आचारांग के अनुसार समता में ही धर्म है (८८) । ५ . इस जगत् में सब प्राणियों के लिए पीड़ा अशान्ति है, दुःख युक्त है (२३) । सभी प्राणियों के लिए यहाँ सुख अनुकूल होते हैं, दुःख प्रतिकूल होते हैं, अप्रिय होते हैं तथा जिन्दा रहने की अवस्थाएँ प्रिय होती हैं । सब प्राणियों के लिए जीवन प्रिय होता है (३६) । अतः आचारांग का कथन है कि कोई भी प्राणी मारा नहीं जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए, शासित नहीं किया जाना चाहिए, सताया नहीं जाना चाहिए और अशान्त नहीं किया जाना चाहिए । यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है ( ७२ ) जो अहिंसा का पालन करता है, वह निर्भय हो जाता है (६९) । हिंसा तीव्र से तीव्र होती है, किन्तु अहिंसा सरल होती है (६९) । अत: हिंसा को मनुष्य त्यागे । प्राणियों में तात्त्विक समता स्थापित करते हुए आचारांग अहिंसा भावना को दृढ़ करने के लिये कहता है कि जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू शासित किए जाने योग्य मानता है- वह तू ही है, जिसको तू सताए जाने योग्य मानता है- वह तू ही है, जिसको तू गुलाम बनाए जाने योग्य मानता है - वह तू ही है, जिसको तू अशान्त किए जाने योग्य मानता है - वह तू ही है (९४) । इसलिए ज्ञानी, जीवों के प्रति दया का उपदेश दे और दया पालन की प्रशंसा करे (१०२) । ६. आचारांग ने समता और अहिंसा की साधना के साथ सत्य की साधना को भी स्वीकार किया है। आचारांग का शिक्षण है कि हे मनुष्य ! तू सत्य का निर्णय कर, सत्य में धारणा कर और सत्य की आज्ञा में उपस्थित रह (५९, ६८ ) । ७. संग्रह, समाज में आर्थिक विषमता पैदा करता है। अतः आचारांग का कथन है कि मनुष्य अपने को परिग्रह से दूर रखे (४२) बहुत भी प्राप्त करके वह उसमें आसक्तियुक्त न बने (४२) । ८. आचारांग में समतादर्शी (अर्हत्) की आज्ञा पालन को कर्त्तव्य कहा गया है (९९) । कहा है कि कुछ लोग समतादर्शी की अनाज्ञा में भी
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