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________________ 190 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क होश नहीं होता है कि वे अमुक दिशा से इस लोक में आए हैं(१)। वे यह भी नहीं जानते हैं कि वे आगामी जन्म में किस अवस्था को प्राप्त करेंगे (१)? यहां प्रश्न यह है कि क्या स्व-अस्तित्व की निरन्तरता का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है? कुछ लोग तो पूर्वजन्म में स्व-अस्तित्व का ज्ञान अपनी स्मृति के माध्यम से कर लेते हैं। कुछ दूसरे लोग अतीन्द्रिय ज्ञानियों के कथन से इसको जान पाते हैं तथा कुछ और लोग उन लोगों से जान लेते हैं जो अतीन्द्रिय ज्ञानियों के सम्पर्क में आए हैं (२) इस तरह से पूर्वजन्म में स्वअस्तित्व का ज्ञान स्वयं के देखने से अथवा अतीन्द्रिय ज्ञानियों के देखने से होता है। पूर्व जन्मों के ज्ञान से ही पुनर्जन्म के होने का विश्वास उत्पन्न हो सकता है। आचारांग ने पुनर्जन्म में विश्वास को पूर्वजन्म के ज्ञान पर आश्रित किया है। ऐसा लगता है कि महावीर युग में पूर्वजन्म को स्मृति में उतारने की क्रिया वर्तमान थी और यह आध्यात्मिक उत्थान के प्रति जागृति का सबल माध्यम था। जन्मों-जन्मों में स्व-अस्तित्व के होने में विश्वास करने वाला ही आचारांग की दृष्टि में आत्मा को मानने वाला होता है। जन्मों-जन्मों पर विश्वास से देशकाल में तथा पुद्गलात्मक लोक में विश्वास उत्पन्न होता है। इसी से मन, वचन, काय की क्रियाओं और उनसे उत्पन्न प्रभावों को स्वीकार किया जाता है। आचारांग का कहना है कि जो मनुष्य पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को समझ लेता है वह ही व्यक्ति आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी कहा गया है (३)। इसी आधार पर समाज में नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों का भवन खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक उत्थान को वास्तविक बनाया जा सकता है। क्रियाओं की विपरीतता ... आचारांग इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि मनुष्य के द्वारा मन, वचन, काया की क्रिया की सही दिशा समझी हुई नहीं है। इसीलिए उनसे उत्पन्न कुप्रभावों के कारण वह थका देने वाले एक जन्म से दूसरे जन्म में चलता जाता है और अनेक प्रकार की योनियों में सुखों-दुःखों का अनुभव करता रहता है(४)। मनुष्य की क्रियाओं के प्रयोजनों का विश्लेषण करते हुए आचारांग का कहना है कि मनुष्य के द्वारा मन, वचन, काया की क्रियाएँ जिन प्रयोजनों से की जाती हैं, वे हैं: १. वर्तमान जीवन की रक्षा के प्रयोजन से २. प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाने के प्रयोजन से, ३. भावी जन्म की उधेड़ बुन के कारण, वर्तमान में मरण भय के कारण तथा परम शान्ति प्राप्त करने तथा दुःखों को दूर करने के प्रयोजन से (५,६)। जिसने क्रियाओं के इतने शुरुआत जान लिए हैं उसने ही क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया है (७)। किन्तु दुःख की बात यह है कि मनुष्य इन विभिन्न प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए विभिन्न जीवों की हिंसा करता है,उनकी हिंसा करवाता है तथा उनकी हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है (८ से १५)। आचारांग का कहना है कि क्रियाओं की यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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