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________________ मंगलाचरण १.अवबोध व्यक्तित्व और कर्तृत्व का एक समवाय है-व्यक्ति। व्यक्ति-विकास में व्यक्तित्व भी निमित्त बनता है और कर्तृत्व भी । व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारने वाला कर्तृत्व ही मुख्यरूप से सहायक होता है। जब व्यक्तित्व के दीवट पर कर्तृत्व का दीपक जलता है तब व्यक्ति का व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है, वह पूर्णरूपेण प्रकाशित हो जाता है। जब कर्तृत्व मुखर होता है तब अनेक परिस्थितियां और विघ्न-बाधाओं के आने की संभावना बनी रहती है। मनुष्य सदा अपने आपको परिस्थितियों से बचाने का प्रयास करता है, विघ्न-बाधाओं के निवारण का उपाय खोजता है। वह अपने पौरुष और श्रम को तभी सार्थक और सफल मानता है जब उसका प्रारब्ध कार्य निष्पत्ति तक पहुंच जाता है। कार्य अपने आप में छोटा या बड़ा नहीं होता। कार्य की सानन्द संपन्नता ही कार्य की सबसे बड़ी सफलता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य कार्य का प्रारंभ करने से पूर्व उसकी सफलता पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। सफलता के मुख्यतया तीन बिन्दु हैं • प्रारब्ध कार्य की निरापद संपन्नता। • कार्य की निरन्तर गतिशीलता। • विघ्न-बाधाओं आदि का निरसन। आचार्य सोमप्रभ ने अपनी लघुकृति 'सूक्तिमुक्तावली' का प्रारंभ मंगलाचरण से किया है। यह कृति अपर नाम 'सिन्दूरप्रकर' से प्रसिद्ध है। अभीष्ट सिद्धि के लिए मंगलाचरण एक मन्त्र भी है और शुभकार्य के लिए की जाने वाली मंगलकामना का भी द्योतक है। कृतिकार सूरीश्वर ने अपनी गहन आस्था को भगवान पार्श्वनाथ के प्रति अभिव्यक्त किया है। भगवान पार्श्व जैन परम्परा में होने वाले इस युग के तेईसवें तीर्थंकर हैं। उनका नाम मन्त्राक्षरसम है। उनकी शरण स्वयं मंगल है। जो स्वयं मंगल होता है वही दूसरों को मंगल दे सकता है, वही दूसरों की विघ्नबाधाओं को दूर कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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