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________________ ३८४ सिन्दूरप्रकर राजा को रात्रिविश्राम के लिए उपयुक्त स्थान की आवश्यकता थी। उसने स्थान खोजने के लिए इधर-उधर देखा। सामने उसे एक ऊंची पहाड़ी दिखाई दी। वहां एक सुन्दर महल था। रात बिताने के लिए राजा पहाड़ पर चढ़ा। महल को देखकर राजा का मन कुतूहल और विस्मय से भर गया, क्योंकि महल भव्य था, किन्तु था निर्जन। राजा ने उस रहस्य को जानने के लिए ज्योंही महल में प्रवेश किया कि सामने से आती हुई एक रूपवती कन्या ने उसका स्वागत किया। कन्या ने अपने भाग्य को सराहते हुए कहा-आज मैं धन्य हुई हूं कि आप जैसे महाभाग के दर्शन मुझे प्राप्त हुए हैं। इस निर्जन महल में मैं अब तक एकाकी थी। आज हम दो हो गए हैं। राजा ने उसका परिचय पूछा। कन्या ने अपना परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा-मैं महाराज दृढ़शक्ति की पुत्री हूं। मेरा नाम कनकमाला है। मेरे पिताश्री वैताढ्य पर्वत के तोरणपुर नगरी के अधिशास्ता हैं। एक बार एक विद्याधर मेरे रूप में आसक्त हो गया। वह मुझे अपहृत कर यहां ले आया। मेरे भाई को मेरे अपहरण का पता चला। वह मुझे विद्याधर के चंगुल से मुक्त कराने के लिए यहां आया। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। दोनों परस्पर लड़ते हुए एक दूसरे के द्वारा मारे गए। अब तक मेरा कोई सहायक नहीं था। जब आप यहां आ गए हैं तब आप ही मेरे रक्षक और सहायक हैं। मैं आपको अपना पति मान रही हूं। आप मेरी भावना को साकार कर मुझे कृतार्थ करें। राजा सिंहरथ उसकी मनोव्यथा सुनकर उसके साथ विवाह करने को राजी हो गया और वहीं उसने उस कन्या के साथ गान्धर्व विवाह कर लिया। राजा आमोद-प्रमोद से वहीं रहने लगा। वहां रहते हुए उसे कई दिन बीत गए। एक दिन अचानक राजा को अपने राज्य की स्मृति हो आई। उसने सोचा-मेरे बिना राज्य का कार्यभार कैसे चलता होगा? कर्तव्य के नाते मुझे वहां जाकर अपनी राज्यव्यवस्था को देख लेना चाहिए, यह सोचकर उसने कनकमाला से कहा-प्रिये! अब मैं अपने राज्य में जाना चाहता हूं। यहां रहते हुए मुझे काफी दिन हो गए हैं। अब तुम मुझे जाने की अनुमति दो। पुनः मैं यहां आकर तुम्हारी सार-संभाल लेता रहूंगा। कनकमाला ने कहा-जैसा आपको इष्ट हो, वैसा करो। यह दासी तो आपके चरणों का ही अनुसरण करने वाली है। रानी ने अपना एक सुझाव देते हुए राजा से कहा-आपकी राजधानी यहां से काफी दूर है। उस स्थिति में घोड़े पर सवार होकर आपका वहां जाना काफी कठिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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