________________
३७८
सिन्दूरप्रकर
कभी अशुभभावनाओं से शुभभावना के शिखर पर चढता है। __रात काफी व्यतीत हो चुकी थी। इलापुत्र सीधा अपने शयनकक्ष में आया और संकल्प-विकल्पों को संजोता हुआ सो गया। पर आंखों में नींद नहीं थी। पुनः पुनः उसे वह षोडशी कन्या ही सामने दीख रही थी। जैसेतैसे रात व्यतीत हुई, सूर्योदय हुआ। फिर भी उसका मानस प्रफुल्लित नहीं था। न उसे खाने की सुध थी तो न पीने की। अहर्निश वह उन्हीं विचारों में खोया हुआ था।
एक दिन कुमार इलापुत्र ने सोचा-ऐसा कब तक चलता रहेगा? जब तक मैं अपनी मनोभावना को पिताश्री तक नहीं पहुंचाऊंगा तो वे मेरे भीतर पल रही भावना को कैसे जानेंगे? यह सोचकर उसने साहस के साथ पिताश्री से अपनी बात निवेदित की। श्रेष्ठी धनदत्त अपने पुत्र से ऐसी बात सुनकर एक बार तो सकपका गए, पर दूसरे ही क्षण अपने आपको संभालते हुए बोले-पुत्र! लगता है, अभी तुम नासमझी में पल रहे हो। तुम्हारे मुख से मैं यह सुनूं, मुझे अच्छा नहीं लगता। इस दुनिया में उस कन्या से भी सुन्दरतम अनेक कन्याएं हैं। तुम उनमें से अपनी मनपसन्द कन्या का चुनाव कर सकते हो। पर मैं किसी तुच्छ जाति की कन्या से तुम्हारा पाणिग्रहण करूं, यह कुल-परम्परा, कुलगौरव के सर्वथा विरुद्ध है। इस कार्य में मेरा मन बिल्कुल भी अनुमति नहीं देता।
पिताश्री के मुख से दो टूक उत्तर सुनकर इलापुत्र का मन आहत हो गया। एक ओर उसका संकल्प तो दूसरी ओर पिताश्री की नाराजगी। अब उसके सामने एक ही उपाय बचा था कि या तो पिताश्री को राजी कर लिया जाए या फिर उनसे संघर्ष किया जाए। पुत्र ने अपनी बात प्रकट करते हुए कहा-पिताश्री! जो मेरी बन चुकी है उसे सहसा त्यागना भी मेरे लिए कठिन है। आप मेरी भावनाओं का मूल्यांकन करें
और अपनी प्रसन्नता को मेरी प्रसन्नता के साथ मिलाएं, तभी मैं यह काम कर सकता हूं। पिता ने झुंझलाते हुए पुत्र से कहा-जो काम स्वप्न में भी असंभव है उसकी कल्पना को तुम मन से निकाल दो। हमारे कुल में न कभी ऐसा काम हुआ है और न कभी होगा। बस, मेरा तुमसे यही कहना है।
इन शब्दों के साथ ही पुत्र की आशाओं पर पानी फिर गया। उसने मन में ठान लिया कि अब अकेले ही मुझे अपने संकल्प के लिए संघर्ष करना है। यह सोचकर वह घर से निकल गया और नटमंडली के डेरे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org