SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्बोधक कथाएं उसके पास आ गई और वहीं रहने लगी। कुछ दिन बीतने पर कृतपुण्य के मन में आया कि काश ! मेरी पूर्ववर्ती चारों पत्नियां भी मेरे साथ होती, पर वह उनके स्थान आदि से अपरिचित था। उसने सारी बात अभयकुमार को बताई । कुमार ने उनकी खोज निकालने के लिए नगर के बाहर एक यक्ष का मन्दिर बनवाया। सारे नगर में घोषणा करा दी गई कि नगर का कोई भी स्त्रीपुरुष यक्ष की पूजा से वंचित न रहे, अन्यथा उसे यक्ष के कोप का भाजन बनना होगा और उसके घर में विपत्ति छा जाएगी । घोषणा के साथ ही निश्चित दिन और निश्चित समय पर यक्ष की पूजा हेतु स्त्री-पुरुषों का आवागमन प्रारम्भ हो गया । कृतपुण्य और कुछेक राजसेवक गुप्तरूप से प्रत्येक स्त्री-पुरुष पर नजर रखे हुए थे । कुछ समय बाद विधवा सेठानी चम्पा भी अपनी चारों पुत्रवधुओं और पौत्रों के साथ यक्षायतन में पहुंची। कृतपुण्य ने उनको पहचान लिया और पुत्रवधुओं ने भी उसे पहचान लिया। अब कृतपुण्य अपनी सातों पत्नियों और पुत्रों के साथ ऐश्वर्ययुक्त तथा सुखपूर्वक जीवन बिताने लगा । सुख-सुविधा के अनेक साधन होने पर भी वह सदाचारी, धर्मनिष्ठ और कर्तव्यपरायण पुरुष था । उसने विपत्ति के दिन देखे थे, इसलिए उसे संपत्ति मिलने का अहंकार नहीं था। दौर्भाग्य ने उसे दुत्कारा तो सौभाग्य ने उसका वरण किया, फिर भी वह दोनों स्थितियों में सम था । ३७३ एक बार वर्धमान महावीर राजगृह में समवसृत हुए । जनता प्रभुवन्दन के लिए वहां गई । कृतपुण्य भी अपना अहोभाग्य मानकर सपरिवार वहां आया। भगवान की धर्मोपदेशना सुनी। लोगों के चले जाने के बाद कृतपुण्य ने भगवान को वन्दना करते हुए जिज्ञासा की - भन्ते ! मेरे जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। मैंने विपत्ति का भी अनुभव किया और संपत्ति का भी । मैंने पूर्वभव में ऐसे कौनसे कर्म किए थे जिनके कारण मुझे सुख दिन के दिन देखने पड़े। भगवान ने उसके पूर्वभव का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसकी संपत्ति का कारण था - मासखमण की तपस्या करने वाले मुनि को पायसदान तथा विपत्ति का कारण था - मित्र के हार का हरण । कृतपुण्य अपना पूर्वभव जानकर संसार से विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। उसकी सातों पत्नियों ने भी उसी मार्ग का अनुसरण किया। वे भी उसके साथ दीक्षित हो गईं। सभी ने उत्कट साधना कर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy