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________________ ३७२ सिन्दूरप्रकर यदि कहीं से जलकान्त-मणि मिल जाए तो ग्राह सुगमता से हाथी को छोड़ सकता है। राजा के कोश में रत्नों की बहुलता थी, पर उनमें से जलकान्तमणि को खोजना श्रमसाध्य और समयसाध्य कार्य था। मणि को खोजने में समय लगेगा, यह सोचकर राजा को नगर में उद्घोषणा करानी पड़ी। घोषणा सुनकर हर व्यक्ति राजा का जामाता बनना चाहता था। हलवाई ने भी अवसर का लाभ उठाना चाहा। वह मणि को लेकर राजा के पास पहुंचा। अभयकुमार की युक्ति काम कर गई। जहां हाथी फंसा हुआ था वहां मणि को पानी में डाला। मणि के प्रभाव से पानी दो भागों में विभाजित हो गया। बीच में जलजन्तु के आस-पास सूखा होने के कारण उसकी पकड़ शक्ति कम हो गई। वह पानी में चला गया। सेचनक हाथी उसकी पकड़ से छूट गया। राजा की उद्घोषणा के अनुसार अब हलवाई पुरस्कार पाने का अधिकारी था। राजा ने उसके मनोभाव और मुखभंगिमा को पढकर अनुमान लगाया कि ऐसे व्यक्ति के पास जलकान्तमणि का मिलना संभव नहीं लगता, फिर भी इसे पूछ लेना चाहिए कि इसने इस मणि को कहां से प्राप्त किया है ? राजा ने पूछा-भद्र ! यह मणि तुझे कहां से प्राप्त हुई? पहले तो उसने कुछ बताने से आना-कानी की, असत्य का सहारा लिया, पर वास्तविकता के आगे असत्य कब चलने वाला था? अभयकुमार ने जब उसे प्राणदण्ड की धमकी दी तो उसने सचाई को उगल दिया। उसने कृतपुण्य के पुत्र का नाम बताते हुए कहा-राजन्! मुझे तो यह मणि विजय बालक से मिली है। राजा ने कृतपुण्य और उसके पुत्र को राजदरबार में बुलाया। राजा ने मणि दिखाते हुए कृतपुण्य से पूछा-तुमने यह मणि कहां और कैसे प्राप्त की? क्या इसका कोई प्रमाण है? कृतपुण्य ने आदि से लेकर अन्त तक का सारा इतिवृत्त सुना दिया और साथ में घर से ये तीन रत्न मंगवाकर भी राजा को दिखा दिए। राजा उस पर बहुत ही प्रसन्न और संतुष्ट हुआ। उसने जान लिया कि वास्तव में ही मेरे पुरस्कार को पाने का अधिकारी कृतपुण्य है। राजा ने बड़े ही शाही ठाठ-बाट से अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया और इसके साथ ही सौ गांव भी बक्शीश में दे दिए। अब कृतपुण्य राजा का जामाता बन गया। उसे धनसंपत्ति, सुख-ऐश्वर्य आदि की कोई कमी नहीं थी। इधर देवदत्ता वेश्या को कृतपुण्य के राजा के जामाता बनने का समाचार ज्ञात हुआ। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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