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________________ ३७० सिन्दूरप्रकर जाए। पर सास का आदेश था। वे उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती थीं। उन चारों ने अपनी सहानुभूति प्रकट करते हुए पाथेयस्वरूप चार मोदक बनाए और उन मोदकों में उन्होंने एक-एक रत्न रख दिया। उन्होंने यही सोचा-रास्ते में पतिदेव मोदकों को खाने के काम ले लेंगे और रत्नों से उनकी जीवन-यात्रा चलती रहेगी। रात को कृतपुण्य जब गहरी नींद में सो गया तो बहुओं ने उसके सिरहाने उन मोदकों को रख दिया और रात को सोते हुए उसे उठवाकर पुनः उसी गुणशीलक उद्यान के उसी चैत्यालय में भिजवा दिया। प्रभात होने पर जब वह नींद से उठा तो उसने अपने आपको पुनः उसी परिचित स्थान पर पाया, पर वह उसका रहस्य नहीं समझ सका। संयोग से उसी दिन वह सार्थ भी वहीं आ पहुंचा जिसके वह साथ धनार्जन हेतु परदेश जाने वाला था। कृतपुण्य की पत्नी को पति के आने का समाचार ज्ञात हुआ। उसने पति को लाने के लिए एक आदमी भेजा। कृतपुण्य उसके साथ घर पहुंचा। भार्या ने उसका स्वागत किया और पाथेय की थैली को अपने हाथ में लेकर भीतर रख दिया। कृतपुण्य स्नानादि से निवृत्त हुआ। उसने अपनी पत्नी के साथ एक बालक को देखा। वह उसे पहचान नहीं सका। पूछने पर पत्नी ने कहा-स्वामिन्! यह आपका ही पुत्र विजय है। जब आप धनार्जन हेतु परदेश गए थे तब मैं गर्भवती थी। आपके जाने के बाद यह पुत्र उत्पन्न हुआ है और आज यह लगभग ग्यारह वर्षों का हो गया है। कृतपुण्य ने पुत्र-ममता से उसे अपनी बाहों में भर लिया। उसे प्यार देते हुए सहलाया और लडाया। पुत्र को पाठशाला जाने की जल्दी थी। उसने मां से कहा-तुम मुझे शीघ्रता से प्रातराश करा दो, अन्यथा उपाध्यायजी देरी से पहुंचने पर मेरे पर नाराज होंगे। मां ने मोदकों की पोटली से एक मोदक निकालकर उसके हाथ में दे दिया। पुत्र विजय जाने की उतावली में था, इसलिए वह मोदक को भी साथ में ले गया और मार्ग में ही उसे तोड़कर खाने लगा। मोदक में रत्न था। विजय ने उसे चमकीला पत्थर समझा। वह रत्न को क्या जाने? रास्ते में एक हलवाई की दुकान पड़ती थी। बालक ने हलवाई को रत्न देते हुए कहा-तुम यह चमकीला पत्थर ले लो और इसके बदले में तुम मुझे प्रतिदिन मिष्ठान्न भोजन करा दिया करो। हलवाई उस रत्न को देखने लगा। अचानक वह रत्न उसके हाथ से छूटकर पानी में गिर गया। फिर क्या था? तुरन्त पानी दो भागों में बंट गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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