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________________ सिन्दूरकर इन्द्रियदासता के कारण वे अपने आपको वश में नहीं रख सके। बड़ा पुत्र धर संगीतप्रेमी था, दूसरा पुत्र धरण रूपपिपासु था, तीसरा यश नाम का पुत्र सुगन्धरसिक था, चौथा पुत्र यशचन्द रसलोलुप और पांचवां पुत्र चन्द कामभोगों में आसक्त था। पांचों पुत्र एक-एक कर पांचों ही इन्द्रियविषयों में आसक्त थे। अपनी आसक्ति के कारण वे धन का व्यय अधिक करते थे, धनोपार्जन कम करते थे। पिताश्री सुयश ने उनको घर सारी स्थिति से अवगत कराया। उन्हें सही रास्ते पर लाने का प्रयास भी बहुत किया, पर सब व्यर्थ । पिता सुयश अपने 'कुल- गौरव को बढ़ाने के लिए पुत्रों से कुछ कहते । पुत्र उनकी सुनी-अनसुनी कर मनमाना आचरण करते थे। उन पर पिताश्री की शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं था । आए दिन घर में कलहझगड़ा चलता रहता था। सेठानी सुलसा कभी पति को शान्त करने का प्रयत्न करती तो कभी पुत्रों को । एक दिन पत्नी ने सेठजी से कहा- हम दोनों का भला इसी में है कि हम पुत्रों के कार्य में हस्तक्षेप न करें। वे जैसा करते हैं, करने दें। हमारे कहने से उनमें उच्छृंखलता और उद्दंडता अधिक बढ़ती है, विनम्रता का भाव भी कम होता है। परसों आपने अपने ज्येष्ठ पुत्र से जो कहा उसका उत्तर भी आपको ईंट से पत्थर के समान मिल गया। उसने क्या कहा, आपको पता है? जब भी देखो आप तो हमारे पीछे ही पड़े रहते हैं। पता नहीं आदत की क्या लाचारी है? हर समय बड़बड़ाते रहते हैं । ३५४ सेठ सुयश पत्नी की सारी बात सुनकर मौन रहा। उसने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि भविष्य में वह अब ऐसा नहीं करेगा। इससे गृहकलह तो शान्त हो गया, किन्तु सेठ का मन अशान्त रहने लगा। एक दिन आचार्य दमघोष माहेश्वरी नगरी में आए। सेठ ने उनका धर्मोपदेश सुना। आचार्य ने अशान्ति के कारण और उसके निवारण पर अपना सारगर्भित प्रवचन दिया। सेठ तो शान्ति की खोज में ही था। उसे अनायास ही एक सुनहला अवसर मिल गया । वह आचार्य के चरणों में प्रव्रजित होकर विविध तपों से अपने आपको भावित करने लगा। वह यत्र-तत्र आचार्यश्री के साथ विहार करने लगा। लम्बे अन्तराल के पश्चात् एक बार आचार्य दमघोष का पुनः माहेश्वरी नगरी में आगमन हुआ। उनके साथ सुलसा के संसारपक्षीय पति सुयश भी साथ थे। नगर के अनेक लोग आचार्य को वन्दनार्थ, प्रवचनश्रवणार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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