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________________ ३५२ सिन्दूरप्रकर व्यापार के लिए राजा को आभूषणों की आवश्यकता थी। पर रानी ने अपने आभूषण राजा को नहीं दिए, उन्हें छिपाए रखा। एक दिन रानी ने राजा से कहा-आप दिनभर व्यापार में संलग्न रहते हैं। मैं घर पर अकेली रहती हूं। मेरा घर में मन नहीं लगता। आप मेरे लिए किसी दूसरे व्यक्ति की व्यवस्था कर दें, जिससे मेरा मन लगा रहे। राजा उसकी बात से सहमत हो गया। उसी गली में एक पंगु रहता था। राजा ने सोचा-यह पंगु व्यक्ति निरुपाय है। वह रानी को गीत-संगीत तथा कथा आदि सुनाकर उसका मन बहलाता रहेगा, इसलिए राजा ने पंगु को गृहपालक के रूप में रानी के पास नियुक्त कर दिया। धीरे-धीरे रानी उसमें आसक्त हो गई। अब वह राजा को ठिकाने लगाने की सोचने लगी। एक दिन राजा उद्यान में टहलने के लिए गया। वहां रानी ने उसे अत्यधिक मद्य पिलाकर बेहोश कर नदी में फेंक दिया। पंगु और रानी दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। उनका धन पूरा हो गया। अब रानी पंगु को अपने कंधे पर बिठाकर गांव-गांव और घर-घर में घूमने लगी। लोग रानी से पूछते--ऐसी जोड़ी कैसे? रानी कहती कि मेरे माता-पिता ने मेरे लिए ऐसा ही वर ढूंढा हैं, मैं क्या करूं? उधर नदी के प्रवाह में बहते-बहते राजा एक नगर में पहुंच गया। वह एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहा था। नियतिवश उसी दिन नगर का राजा मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था। राजा का चुनाव करने के लिए मंत्री आदि राज्यकर्मचारियों ने एक अश्व को अधिवासित किया। उसे नगर में छोड़ दिया। वह अश्व उसी वृक्ष के पास रुका, जहां जितशत्रु सोया हुआ था। लोगों ने उसकी जय-जयकार कर हर्षनाद किया। मंत्री आदि अधिकारीगण उसके सामने आए। उन्होंने जितशत्रु से निवेदन करते हुए कहा-प्रभो! आप हमारे नाथ हैं, राजा हैं। अब आप इस राज्य की बागडोर संभाल कर राज्य का संचालन करें। वह उस नगर का राजा बन गया। एक बार पंगु को कंधे पर लिए वह रानी भी उसी नगर में आ गई। एक दिन वह महलों के परिपार्श्व से होकर गुजर रही थी। राजा ने उन दोनों देखा और तत्काल उन्हें पहचान गया। राजा ने उन दोनों को अपने महल में बुलाया और पूछा-ऐसी स्थिति क्यों? रानी ने कहा-मातापिता ने मेरा विवाह ऐसे ही व्यक्ति से किया है तब मैं क्या करूं? Jain Education international- - - - *** For Private & Personal use only at www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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