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उद्बोधक कथाएं
३३९ उसने मुंह पर वस्त्र बांधकर राजा को आशीर्वाद देते हुए उसी शब्दावली को दोहराया-'धर्म की जय हो, पाप का नाश हो, भला करना अपना भला और बुरा करना अपना बुरा'। राजा ने उस शब्दावली को सुना, किन्तु कहा कुछ नहीं। क्योंकि मन में समाई हुई गलत धारणा ने राजा को मौन रखा।
उन्होंने मन ही मन सोचा-कैसा विचित्र व्यक्ति है कि ब्राह्मण होते हुए भी शराब पीता है और मुझे आशीर्वाद देता है और मेरे से कुछ लेने के लिए याचना भी करता है। आज इसे मैं दान के साथ-साथ कठोर दंड भी दूंगा। राजा ने अपने हाथ से एक रुक्का लिखा। उसे लिफाफे में बन्दकर ब्राह्मण को देते हुए कहा-आज मैं तुमको एक हजार रुपयों का दान दे रहा हूं। तुम कोषाध्यक्ष के पास जाकर इस राशि को वहां से प्राप्त कर लो।
भला ब्राह्मण यह सुनकर मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-पुरोहितजी की कृपा से मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया। वह तीव्रता से वहां से चला। संयोगवश उसे रास्ते में ही पुनः पुरोहितजी मिल गए। ब्राह्मण ने पुरोहितजी का आभार ज्ञापित करते हुए कहा-यह आपकी ही कृपा का परिणाम है कि राजाजी ने प्रसन्न होकर मुझे एक हजार रुपयों की बक्शीश की है। पुरोहितजी ने जब यह सुना तो उसके मन में भी लोभ जाग गया। उसने ब्राह्मण के हाथ से रुक्के को लेते हुए कहा-देखता हूं, इसमें क्या लिखा है? पर पुरोहितजी तो रुपये पाने की लालसा में उसे बिना देखे ही वहां से चलता बना। ब्राह्मण देखता ही रहा। अब गरीब की पुकार कौन सुने, पुरोहित के सामने उसका वश भी क्या चल सकता था? ब्राह्मण हताश होकर अपने घर लौट आया और लोभाविष्ट दुर्जन पुरोहित कोषाध्यक्ष के पास जा पहुंचा। उसने बन्द लिफाफा कोषाध्यक्ष को दे दिया। जब कोषाध्यक्ष ने उस बन्द लिफाफे को खोलकर रुक्के को पढा तो वह विस्मय से भर गया। उसमें लिखा था
__'रुपया दीज्यो रोकड़ा, मत दीज्यो सुल्लाक।
घर में आघो घालने, काटी लीज्यो नाक।।' कोषाध्यक्ष ने राजा के कथनानुसार उसे हाथ में रुपयों की थैली देकर तथा उसे अन्दर बुलाकर नाक काट दी। पुरोहितजी को अपनी करणी का फल हाथोंहाथ मिल गया। जो अपनी दुर्जनता के कारण दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है वह स्वयं ही पहले उसमें गिरता है। विधि
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