________________
उद्बोधक कथाएं
३३७ __राजसभा में राजपुरोहित राजगुरु के रूप में सम्मानित था। उसे राजा का उससे बातचीत करना अच्छा नहीं लगता था। वह मन ही मन यही सोचता था कि महाराज इस तुच्छ ब्राह्मण को बहुत ही आदरसम्मान देते हैं, सुख दुःख की बातें पूछते हैं और इसको कुछ देने का आश्वासन देकर कुछ न कुछ दे भी देते हैं। यह मेरे लिए उचित नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि यह ब्राह्मण राजा की आंखों में चढ़ जाए और मैं उनकी आंखों से उतर जाऊं। फिर मेरा राज-सम्मान कहां सुरक्षित रहेगा? कौन मेरा आदर-सत्कार करेगा? कहीं ऐसा भी न हो कि राजा मेरा पद छीनकर इस ब्राह्मण को न दे दें, इसलिए पानी आने से पहले ही मुझे पाल बान्ध लेनी चाहिए। राजपुरोहित का शंकाशील मन ब्राह्मण का अहित करने पर तुला हुआ था। वह उसे ईर्ष्या और सन्देह की दृष्टि से देखता था। वह ऐसे अवसर की खोज में था कि ब्राह्मण की कोई गलती उसकी पकड़ में आए और उसके आधार पर वह उसको नीचा गिरा सके। बहुत दिन बीत जाने पर भी वैसी कोई बात उसके हाथ नहीं लगी, क्योंकि ब्राह्मण बहुत ही भद्र, सरल और सदाचारी था। आखिर पुरोहितजी ने अपनी कूटनीति से उस पर दोषारोपण करने का प्रयत्न किया।
एक बार ब्राह्मण को रास्ते में ही पुरोहितजी मिल गए। ब्राह्मण ने झुककर पुरोहितजी का अभिवादन किया और कहा-पुरोहितजी! आप तो राजसम्मानित पुरुष हैं। राजा का आप पर पूर्ण विश्वास है। आप मेरे जैसे गरीब ब्राह्मण के लिए भी कुछ कीजिए, जिससे मेरी घर-गृहस्थी अच्छी प्रकार चल सके।
पुरोहित ने कहा-तुम्हें समझ ही कहां है? क्या तुम्हें पता है कि राजा से कैसे बात करनी चाहिए? क्या कभी खुले मुंह भी राजा से बात होती है? तुम मांग तो रहे हो दान, पर मुझे लगता है कि कहीं तुम्हारी मूर्खता के कारण राजा तुम्हें दंडित ही न कर दे। __ तो महाराज! आप कृपा कर बताएं कि महाराज से मैं खुले मुंह नहीं तो कैसे बात करूं, ब्राह्मण ने पूछा।
पुरोहितजी ने धूर्तता के साथ उसको सलाह देते हुए कहा-जब भी तुम राजा से बात करो, मुंह पर कपड़ा लगा लिया करो, जिससे राजा के शरीर पर तुम्हारा थूक उछल कर न गिरे। उससे महाराज भी तुम्हारे पर प्रसन्न रहेंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org