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________________ २२ सिन्दूरप्रकर अन्वयःयः कृतसुकृतकामः (सन् ) किमपि अदत्तं नादत्ते तस्मिन् कमले कलहंसीव शुभश्रेणिः वसति। तस्मात् अम्बरमणेः रजनीव विपत् दूरं व्रजति। विनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीः तं भजति। अर्थ स्कृत की कामना करने वाला जो मनुष्य किसी भी प्रकार का अदत्त ग्रहण नहीं करता उसमें कल्याण की परम्परा वैसे ही निवास करती है जैसे कमल पर राजहंसी। उससे विपत्ति वैसे ही दूर चली जाती है जैसे सूर्य से रात्री। स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी उसकी वैसे ही उपासना करती है जैसे विद्या विनीत की। यन्निवर्तितकीर्त्तिधर्मनिधनं सर्वागसां साधनं, प्रोन्मीलद्वधबन्धनं विरचितक्लिष्टाशयोद्बोधनम्। दौर्गत्यैकनिबन्धनं कृतसुगत्याश्लेषसंरोधनं, प्रोत्सर्पप्रधनं जिघृक्षति न तद् धीमानदत्तं धनम् ॥३५॥ अन्वयःयत् निर्वतितकीर्तिधर्मनिधनम्, सर्वागसां साधनम्, प्रोन्मीलद्वधबन्धनम्, विरचितक्लिष्टाशयोद्बोधनम्, दौर्गत्यैकनिबन्धनम्, कृतसुगत्याश्लेषसंरोधनम्, प्रोत्सर्पत्प्रधनम् तद् अदत्तं धनं धीमान् न जिघृक्षति। अर्थ जो कीर्ति और धर्म का निधन-विनाश करता है, जो समस्त अपराधों का साधनभूत है, जिससे वध-बन्धन प्रकट होते हैं, जो दुष्ट आशय-अभिप्राय को जाग्रत करता है, जो दुर्गति का एकमात्र कारण है, जो सुगति-प्राप्ति को रोकता है और जिससे कलह बढ़ता है, उस अदत्त धन को बुद्धिमान् पुरुष ग्रहण करने की अभिलाषा नहीं करता। परजनमनःपीडाक्रीडावनं वधभावना भवनमवनिव्यापिव्यापल्लताघनमण्डलम् । कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्गपुरार्गलं, नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां हितकाक्षिणाम् ।।३६।। अन्वयःपरजनमनःपीडाक्रीडावनम् , वधभावनाभवनम् , अवनिव्यापिव्यापल्लता१. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । २. निर्वर्तितं कृतं कीर्तिधर्मयोनिधनं-विनाशो येन तत् । ३. ग्रहीतुम् इच्छति-जिघृक्षति। यह इच्छार्थक क्रियापद है। ४. हरिणीवृत्त। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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