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________________ तो उस पापिनी सेठानी के द्वारा उसे कष्ट देने के और भी उपाय किये जाते । वह उसे बन्धनों में बाँधकर तलघर में बन्द कर देती, और भी अनेकप्रकार के कष्ट देती थी। सती चन्दना इन सब कष्टों को पूर्वकृत कर्मों का उदय मानकर धैर्यपूर्वक सहन करती थी, और धर्मध्यान करते हुये शरीर को धारण करती थी । इसी प्रसंग में उस कौशाम्बी नगरी में आहारचर्या के निमित्त मुनिराज वर्द्धमान पधारे. ( मुनिराज वर्द्धमान की जय-जयकार का घोष सुनकर चन्दना के मन में उन्हें आहारदान देने का प्रबल भाव जागृत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप ) उसके शरीर के सब बन्धन टूट गये; और वह निर्बन्ध हो गई । उसके शरीर के समस्त शोक के चिह्न नष्ट हो गये तथा उसका चित्त परम उल्लास से भर गया। उसने सन्मति प्रभु ( मुनिराज वर्द्धमान) के चरणों में सविनय हाथ जोड़कर भूमि पर सिर झुकाकर पंचांग प्रणाम किया । इसप्रकार चन्दना ने विधिपूर्वक मुनिराज वर्द्धमान को पड़गाहा और हृदय में अत्यंत भक्तिभाव से ओतप्रोत हो गई। यह सब शील की महिमा ही जानो कि ( अभागी चन्दना ने) कृपानिधान प्रभु को (आहारदान देने का सौभाग्य) प्राप्त कर लिया । शील की महिमा से ही वह नीरस मट्ठे और कोदों का समूह दूध-चावल की खीर बन गया और मिट्टी का पात्र स्वर्णमय हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि धर्म के प्रभाव से क्या नहीं हो जाता? अर्थात् सभी कुछ संभव है । प्रभु वर्द्धमान को प्रासुक - विधि से दिया गया यही उत्कृष्ट आहार था, जिसके परिणामस्वरूप चन्दना के हृदय में भक्ति का भाव जागा, और नौ प्रकार के पुण्य का उपार्जन चन्दना ने किया । इस अवसर पर आकाश से देवताओं ने पंचाश्चर्य किये, और प्रचुर परिमाण में रत्नों की वर्षा की। चन्दना से आहार - ग्रहण करके मुनिराज वर्द्धमान पुनः जंगल में चले गये, और वहाँ ध्यानस्थ होकर बैठ गये । (इसी समय श्रेष्ठि वृषभसेन कौशाम्बी नगर में वापस लौटे, और उन्होंने वह पूरा घटनाक्रम जाना, तो) वृषभसेन ने चन्दना के चरणों में प्रणाम किया और कहा कि हे माँ ! तुम सती नारियों में शिरोमणि हो । इसप्रकार उसने बहुत प्रकार से स्तुति की और कहा कि अब आप कृपापूर्वक मेरे और मेरे परिजनों के अपराध को क्षमा करें । दान के परिणाम से प्राणी सुखी हो जाता है, और उसके भयंकर से भयंकर संकट दूर हो जाते हैं। संसार को क्षणभंगुर जानकर चन्दना ने प्रभु (महावीर ) के चरणों में जाकर पंच महाव्रत धारण कर दीक्षा अंगीकार की । दान के परिणामस्वरूप चन्दना ने लोक में भरपूर यश अर्जित किया तथा शील- सहित दीक्षा लेकर वह आर्यिका बन गई। प्राकृतविद्या�जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - Jain Education International For Private & Personal Use Only - विशेषांक 89 www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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