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कार्य प्रारम्भ किया, तो उन्होंने लोकतांत्रिक दृष्टि को ही प्रमुख रखा, और उसके अनुरूप लोकभाषा प्राकृत को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। यद्यपि उनके उपदेशों का स्वरूप ओंकारमयी दिव्यध्वनि थी, किन्तु उसकी भाषा प्राकृत सभी आचार्यों ने बतायी है। उस समय प्राकृतभाषा सामान्य जनता की भाषा थी, तथा सम्राट् आदि भी अपने आदेश और
राजाज्ञायें प्राकृतभाषा ही प्रसारित करवाते थे । महावीर के द्वारा प्राकृतभाषा को अपनाने
से इस भाषा की प्रतिष्ठा और अधिक बढ़ी, जिसके परिणामस्वरूप शताब्दियों बाद होने वाले सम्राट् अशोक और सम्राट् खारवेल जैसे प्रतापी राजाओं ने भी अपने संदेश प्राकृतभाषा में ही उत्कीर्ण करवाये । भगवान् महावीर की इस युक्ति के पीछे लोकतांत्रिक प्रवेश का प्रभाव ही मूलकारण था; क्योंकि लोकतंत्र लोक की भाषा को अपने विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम बनाने का निर्देश देता है । इसीलिये आज हमारी सरकारी तौर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी है, न कि अंग्रेजी ।
भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद एव अपरिग्रह जैसे सिद्धांतों के पीछे भी लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक दृष्टि ही मूल थी। वे चाहते थे कि हम लोक को अपनायें तो; किन्तु उसे मात्र 'जन' के रूप में न छोड़ दें, अपितु उसे अहिंसा आदि के संस्कारों से संस्कारित कर 'गण' के रूप में प्रतिष्ठित करें । जनतंत्र से गणतंत्र तक की शिक्षा सम्पूर्ण प्राणीमात्र को देने के लिये बिना किसी सरकारी आदेश या लौकिक अधिकारों के मात्र आध्यात्मिक जागृति के संदेशों को माध्यम बनाकर जो प्रयोग भगवान् महावीर ने किये और उनका जितना व्यापक सुपरिणाम आया, उससे यह भारतवर्ष आज तक अनुप्राणित है । राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी स्पष्टरूप कहा है कि "उन्होंने भारतवर्ष को स्वतंत्र कराने में भगवान् महावीर के जीवन और दर्शन से व्यापक प्रेरणा ली है, क्योंकि उनका जीवन-दर्शन लोकतंत्र एवं गणतंत्र के मूलभूत आदर्शों का अनुपम निदर्शन था।”
आधुनिक गवेषी विद्वानों ने तो यहाँ तक कहा है कि स्वतन्त्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे संविधान निर्माताओं ने जो पाश्चात्य देशों के संविधानों का अनुकरण किया है, उसी से आज हमारे देश का संवैधानिक ढाँचा सुरक्षित नहीं है। क्योंकि हमारे देश की परिस्थितियाँ और संस्कार पाश्चात्य देशों के अनुरूप नहीं है; इसीलिये उनके संविधानों को अनुसरण करके बनाया गया संविधान यहाँ कैसे उपयुक्त हो सकता है? वे कहते हैं कि यदि वैशाली गणतन्त्र का संविधान और उसके नियम यदि इस देश के संविधान में लिये गये होते, तो आज की स्थिति कुछ और ही होती ।
संयम और भावशुद्धि
'सवे हि ते संयम भावसुधी च इच्छति' । - (सम्राट् अशोक का गिरनार अभिलेख) अर्थ निश्चय से सभी मनुष्य आत्म-संयम और भावशुद्धि चाहते हैं
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प्राकृतविद्या�जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 00 85
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