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________________ उसे और भी अधिक विस्तार एवं शोधपूर्वक मनन, चिन्तन कर पता लगाया जाये।। जैन-सम्प्रदाय के इतिहास की सामग्री यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। महावीर के पश्चात् जैनधर्म का अनुवर्तन बड़े-बड़े धुरंधर विद्वान् एवं साधुओं ने किया, जिन्हें श्रेणिक बिम्बसार और चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे महान् प्रभावशाली शासकों का आश्रय प्राप्त था। बहुत से धार्मिक साधु, राजवंश, समृद्ध व्यापारी एवं पवित्र परिवारों ने जैनधर्म की स्थिरता एवं प्रगति के लिए बड़े-बड़े बलिदान किए फलस्वरूप भारतीय कला, साहित्य, नैतिकता, सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जैनियों की जो कुछ भेंट है, उस पर भारत को गर्व है। ___ भगवान् महावीर के सिद्धान्त विधिवत् रूप से तत्कालीन लोकभाषाओं में नियमानुसार ग्रन्थबद्ध हुए, जिनकी व्याख्या नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकाओं के रूप में हुई और फुटकर विषयों पर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी गईं; उन पर आगे चलकर बड़ा विवेचनात्मक विस्तृत साहित्य तैयार हुआ। उनकी शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों को बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों एवं मुनियों ने बड़े तार्किक ढंग से सुरक्षित रखा, जबकि अन्य भारतीय पद्धतियों में ऐसा बहुत ही कम था। ___ भारतीय साहित्य में जैनियों की सेवा अनेकों विषयों से सम्बन्धित हैं और वे प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, तमिल, कन्नड़ पुरानी हिन्दी एवं पुरानी गुजराती आदि विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है। जैनाचार्यों ने भाषाओं को अपने उद्देश्य का मूल-साधन माना था, धार्मिक उदारता के कारण उन्होंने किसी एक ही भाषा पर बल नहीं दिया। धन्य है उनकी दूरदर्शिता को कि उन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में इतने विशाल साहित्य का निर्माण किया तथा तमिल और कन्नड़ को इतना अधिक सुसमृद्ध किया, इसके लिए मुझे विद्वज्जनों से विशेष कुछ कहने की जरूरत नहीं है। गत कई वर्ष हुए डॉ० हूलर ने जैन-साहित्य के विषय में लिखा था कि "व्याकरण, खगोलशास्त्र और साहित्य की विभिन्न शाखाओं में जैनाचार्यों की इतनी अधिक सेवायें हैं कि उनके विरोधी भी उस तरफ आकर्षित हुए। जैनाचार्यों की कुछ रचनायें तो आज यूरोपीय विज्ञान के लिए भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। दक्षिण में जहाँ उन्होंने द्रविड़ों के बीच कार्य किया, वहाँ उनकी भाषाओं के विकास में उन्होंने पूर्ण योग दिया। कन्नड़, तमिल एवं तेलगु आदि साहित्यिक भाषायें जो जैनाचार्यों द्वारा डाली गई नींव पर ही निर्भर हैं और आज उनके ही कारण पल्लवित हो रही हैं, यद्यपि यह भाषा-विकास का कार्य उन्हें अपने मूल उद्देश्य से बहुत दूर खींच ले गया; फिर भी इससे भारतीय भाषा एवं सभ्यता के इतिहास में उन्हें बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। एक बड़े जर्मन विद्वान् ने कहा था, जो शोध-खोज से भी सिद्ध होता है कि “यदि आज हूलर जीवित होते, तो भारतीय-साहित्य में जैनाचार्यों की सेवाओं पर वे बड़े उच्चकोटि के शोधपूर्ण विचार व्यक्त कर जैनत्व का महत्त्व बढ़ाते।" जैनियों ने बड़ी सावधानी एवं चिंतापूर्वक प्राचीन पाण्डुलिपियों को प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 9 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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