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बैठक वैशाली में ही हुई थी, अत: यह बड़ा पवित्र तीर्थस्थान माना जाने लगा, यहीं पर बौद्ध-संघ हीनयान' और 'वज्रयान' के रूप में विभाजित हुआ था। भगवान् बुद्ध की प्रसिद्ध शिष्या 'आम्रपाली' वैशाली में ही रहती थी, जहाँ उसने अपना उपवन महात्मा बुद्ध एवं संघ को वसीयत के रूप में अर्पण किया था। वैशाली का राजनैतिक महत्त्व भी था और यहाँ गणतन्त्रीय शासन-पद्धति प्रचलित थी। यहाँ लिच्छवि गणराज्य के राष्ट्रपति महाराज चेटक थे, जिन्होंने मल्ल की गणराज्य काशी, कौशल के 18 गणराज्य तथा लिच्छवियों के 9 गणराज्य मिलाकर एक संघशासन का सुसंगठन किया था। दीघनिकाय' में वज्जि- संघ की शासन-पद्धति एवं कार्य-कुशलता की श्रेष्ठता का सुन्दर वर्णन मिलता है, जो तत्कालीन गणतन्त्रात्मक शासनपद्धति का श्रेष्ठतम आदर्श थी। वैशाली वाणिज्य की भी विशालतम केन्द्र थी, जहाँ श्रीमंतों, वणिजों एवं शिल्पियों की मुद्रायें चला करती थीं। जब फाहियान (399-414 ई० में) भारत आया, तब वैशाली धर्म, राजनीति एवं व्यापार का एक प्रमुख-केन्द्र थी, पर अगली तीन शताब्दियों में इसका पतन प्रारम्भ हो गया और हेनसाँग (635ई० में) जब भारत आया, तब तो यह बिल्कुल ही नष्ट-भ्रष्ट हो गई थी और अब तो जीर्ण-शीर्ण वृद्धा की भाँति बिल्कुल ही उपेक्षित है। __ आधुनिक भारतीय गणराज्य ने वैशाली-संघ की एकता से बहुत कुछ सीखा है, तथा वज्जिसंघ की एकता हमारे प्रजातन्त्र की प्रमुख आधारशिला है। और अहिंसा, जो पंचशील का प्राण है, हमारी नीति-निर्धारण की मूल-केन्द्र-बिन्दु है। हमारी केन्द्रीय सरकार हिन्दी को राजभाषा बनाकर मगध-शासन की नीति का अनुकरण कर रही है, जिसने वर्ग-विशेष की भाषा की अपेक्षा जन-साधारण की भाषा को ही प्रतिष्ठा एवं गौरव प्रदान किया था। सम्राट अशोक के सभी लेख प्राकृत में ही उपलब्ध हैं, जो तत्कालीन जनभाषा थी। हमारे प्रधानमन्त्री पं० नेहरू को भी प्रियदर्शी सम्राट अशोक की भाँति अपने उच्चाधिकारियों की अपेक्षा जनता जनार्दन से मिलना अत्यधिक रुचिकर है। इस रूप में वैशाली को उपेक्षित नहीं कहा जा सकता है और आजकल तो केन्द्रीय शासन, बिहार शासन, भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शांतिप्रसाद जी और वैशाली-संघ के उत्साही सदस्य डॉ० जगदीशचन्द्र माथुर आदि के सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप वैशाली का उत्थान हो रहा है। बिहार-शासन ने जैन और प्राकृत-साहित्य के अध्ययन के लिए यहाँ एक स्नातकोत्तर संस्था की स्थापना की है। आशा है यह ज्ञान और अध्ययन का विशाल-केन्द्र बन जायेगी।
कालचक्र की प्रबल गति एवं राजनीतिक परिवर्तनों के कारण वैशाली सर्वथा ध्वस्त हो गई और हम भारतवासी भी उसके अतीत वैभव एवं महत्त्व को भुला बैठे, पर आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि वैशाली ने अपने सुयोग्य सपूतों को अब तक भी नहीं भलाया है। वैशाली के जैन-बौद्ध-स्मारकों में वहाँ के स्थानीय मूल निवासी 'सिंह' व
00 32 प्राकृतविद्या-जनवरी-जन'2001 (संयक्तांक) +महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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