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________________ करते हु उन्होंने धर्म की दस-- - सूत्री - योजना को प्रस्तुत किया । पञ्च - अणुव्रतों का पालन लोक के लिए आवश्यक बताया । मूलगुणों को चारित्रमार्ग से चरितार्थ कर लोक - प्रबोध दे सकें तथा आत्मकल्याण–साधन कर सकें, इसके लिए त्याग का सर्वोत्कृष्ट मुनिमार्ग स्वीकार किया । ये ही ऐसे सक्षम साधन हैं, जिनके द्वारा पृथ्वी पर स्वर्ग की रचना हो सकती है। मनुष्य मनुष्यता के आनंद को प्राप्त कर सकता है । दशलक्षण मानो निर्विरोध प्रगतिशील जीवन की खुली हुई दशों दिशायें हैं। मनुष्य के दैनिक तथा आयुपर्यन्तगामी व्यवहारों का मणिकोष हैं । मानव संसार में नित्य जिनका उपयोग होता है और सफलता की सिद्धि प्राप्त की जाती है, ऐसे अनुभूत प्रयोग, सर्वथा अहिंसक, निर्वैर और स्वपरकल्याणकारी, जो घर को आनन्द - ‍ द- मन्दिर और संसार को निरापद भूमि बना सकते हैं। जिनके पालन से अन्तर्बाह्य शान्ति मिलती है और अणु - आयुधों की निर्माण - भट्टियाँ बुझ जाती हैं, प्रक्षेपास्त्र शून्य में खो जाते हैं, ताल ठोंककर रण - आमन्त्रण करनेवाले सिंहनाद मैत्री - स्वरों में परिवर्तित होते हैं और आत्मा के तलस्पर्शी रत्नों की उपलब्धि सहज हो जाती है। सामाजिकता के लिए शुचिता धर्म जो मनुष्य इन धर्म - लक्षणों को किसी त्यागी - विशेष के लिए, किसी भव्यात्मा के लिए अथवा जातिगत आचरण के लिए सीमित मानते हैं, वे निश्चय ही 'समीचीन' शब्द का अर्थ नहीं जानते, 'सर्वोदय तीर्थ' की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं । 'क्षमा' क्या जैनों का धर्म ही है? 'मार्दव' और 'आर्जव' को सम्प्रदाय - विशेष के लिए उपकारक मानते हो ? 'सत्य' क्या प्रत्येक व्यक्ति के लिए पालनीय नहीं ? 'शौच' के बिना सामाजिकता और आत्मशुद्धि टिक सकेगी? दीर्घजीवन के लिए 'संयम' कितना आवश्यक है ? कार्यों की सिद्धि 'तप' बिना हुई है ? महान् उपलब्धियों को 'त्यागी' ही पा सकता है, राग करने से तो अपनी छाया भी आगे-आगे भागती है । अभिमान और दर्प के विन्ध्याचलों को ओढ़कर कितनी दूर चलोगे ? चलने के लिए तथा ऊपर पहुँचने के लिए लघुभारवान् होने की परम आवश्यकता है । 'अकिंचनत्व' ही वह स्थिति है, जिससे मनुष्य ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, संहनन - इन आठों मदों से रहित हो सकता है । मद पाप है और पाप का निरोध सम्पत्तियों की प्राप्ति है । 'ब्रह्मचर्य व्रत' तो अपार महिमाशील है। जैसे अब अंगों की क्रिया के लिए मनुष्य के लिए कन्धे से ऊपर का भाग आवश्यक है, उसीप्रकार धर्म के पालनार्थ ब्रह्मचर्य अनिवार्य है । मति, मेधा, बल, ओज, स्मृति, धृति, ज्ञान, विज्ञान सामर्थ्य, नव-नवस्फुरण कारिणी प्रतिभा ब्रह्मचर्य के सुगम (सुलभ ) परिणाम हैं। जो धीर मनुष्य अपने श्वेत - शोणित अर्थात् शुक्र को अपने शरीर में ही पचा लेता है, वही अदृष्टवीर्य सच्चा वीर्यवान् है । सत्त्व और तेज उसके नेत्रों में दीप्ति बनकर दमकते रहते हैं । इन दश लक्षणों को ही 'धर्म' कहते हैं । यदि - प्राकृतविद्या - जनवरी- - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 023 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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