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________________ तृष्णाशामक नहीं होगा । आजकल इतनी त्वरा बढ़ गई I 1 आज कलियुग में ये बातें यथार्थ घटित हो रही हैं। क्या धन, क्या धर्म और क्या ज्ञान सभी क्षेत्र तुच्छ एवं कपटपूर्ण वृत्ति के आखेट हो रहे हैं । वास्तविकता में किसी भी स्वीकृत मार्ग का पालन करनेवाला बड़ी कठिनता से मिल पाता है । हाथ में जपमाला लेकर विश्वयात्रा करने वाले मनोविचारों के साथ उड़नेवाले ध्यानियों की आज कमी नहीं है । त्रियोग को सँभालना उच्चकोटि के ज्ञान-ध्यान की शुभ परिणति से शक्य है और है दुष्कर वैसी परिणति नाना- कषाय-वेष्टित, कर्म - मल- दूषित आधुनिक कलिकाल में प्राय: मानव उस कोटि तक पहुँचने का तप तथा श्रम करता ही नहीं, परन्तु फलवाञ्छा में यह कल्पतरुओं के सर्वस्व को पा लेना चाहता है । त्वरा इतनी बढ़ गई है कि बीज बोने के बाद क्षण-क्षण पर उसकी मिट्टी कुरेदकर देखता है कि अंकुर निकला नहीं। एक माली जितना धैर्य भी नहीं है और फलाकांक्षा की कोई सीमा नहीं है । बस, आर्त- रौद्र ध्यानों में ही समय का अधिकांश व्यतीत हो जाता है । धनिक होने की इच्छा में वह सट्टा, मटका आदि द्यूतवर्गीय व्यसनों में लिप्त होकर एक मुहूर्त में धनपति होने की लालसा रखता है । तमसो मा ज्योतिर्गमय विद्या और ज्ञान-प्राप्ति के क्षेत्र में जो आज हो रहा है, वह सर्वविदित है । छात्र विलासी, शौकीन, उद्दण्ड, क्रीड़ाप्रिय, दीर्घसूत्री, हठी, अविनयी, ध्वंसनीतिपरायण एवं हिंसाप्रिय हो गए हैं। ज्ञान की पिपासा, जो प्राचीनकाल में भारतीयों का प्रिय धन थी, मरुभूमि में स्वल्पतोया नदी के समान सूख गई है। धन बढ़ने पर जहाँ दान-धर्म की प्रवृत्ति बढ़ने लगती थी, वहाँ आज विलासिता और कामुकता बढ़ रही है। प्राचीन समय में (चतुर्थकाल में ) ज्ञान, धन तथा धर्म जो आत्म-कल्याण के साधन थे, आज साध्य बन गये हैं। यह स्थिति अन्धकारपूर्ण है और धर्मकीर्ति के शब्दों में 'धिग् व्यापकं तम:' इन सब क्षेत्रों को (जीवन के सभी अंगों को) छेकनेवाले (व्यापक) अन्धकार को धिक्कार है । आशाधर कहते हैं 'धिग् दुःषमा - कालरात्रिम्' इस दुःषमा - कालरूपी रात्रि को धिक्कार है। और भी एक सूक्ति है कलिकालबलं प्राप्य सलिलै: तैलबिन्दुवत् अधर्मो वर्धते' कलिकाल के प्रभाव से पानी पर तैलबिन्दु के समान अधर्म बढ़ जाता है । इन उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि काल का प्रभाव अमोघ है । जिनेन्द्र का सर्वोदय धर्म शिशिर ऋतु वन-प्रकृति के लिए दुःषमा - काल - रात्रिवत् है और वसन्त उन्हें फल- पुष्प-पल्लवों से सम्पन्न करने में चतुर्थकाल - तुल्य है । 'कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजा:' काल की भट्टी में सारा जगत् पक रहा है और काल के शस्त्र से सभी का संहार हो रहा है । प्रजा में व्याप्त धर्म को काल न्यून और अधिक करता है । प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 021 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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