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________________ को वहाँ जिनेन्द्र के चरणमूल में सुधास्वादन के लिए आमन्त्रित करते हैं। वीतराग और सम्यक्त्वी होते हुए भी मुनिराज प्राय: पर्यटन करते रहते हैं और उपदेश प्रदान करते हैं, वे इसी सर्वोदय के लिए। उपदेशों से उनका आत्मकल्याण होता हो, नितान्त ऐसी बात नहीं है। तथापि लोक में धर्मप्रभावना बनाये रखने एवं जिस सम्यक्त्व को उन्होंने प्राप्त किया है. उसी का निरूपण करने के लिए उनका 'यायावर-व्रत' चलता है। धर्मचर्चा के अतिरिक्त लोकसम्पर्क रखना मुनि के लिए निषिद्ध है। क्योंकि "जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रम: । भवन्ति तस्मात् संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत ।।" - (समाधितंत्र, 72) यदि लोक-सम्पर्क रखा जाएगा, तो उनसे वार्तालाप आवश्यक होगा। वार्तालाप का विषय मानसिक-स्पन्दन और चित्तविभ्रम उत्पन्न करेगा। त्यागी के लिए तो निश्चय ही यह निषिद्ध है। अत: जन-सम्पर्क वर्जित है। धर्मप्रभावना मात्र के लिए यदृच्छा से लोकसंग्रह होता हो, वह निन्दनीय नहीं। देश, काल, भाव, क्षेत्र तथा पात्रापात्र का विचार करते हुए मुनि चतुर्विध (आक्षेपिणी, विक्षेपिणी. संवेदिनी और निर्वेदिनी) धर्मकथाओं का आगमानुमोदित व्याख्यान करते हैं। विश्वमानव के सम्पूर्ण हितों की रक्षा भगवान् ने सर्वोदय तीर्थ की परिकल्पना करते हुए इसे विश्व-मानवों के सम्पूर्ण हितों की रक्षा करने में सक्षम बनाया है। रागी और त्यागी—दोनों वर्गों के लिए हितावह देशनायें की हैं। राग-परिणति का सर्वथा त्याग सामान्यजन के लिए दुष्कर है, अत: सराग व्यक्ति शनै:-शनैः परिग्रह-परिमाण से तथा अहिंसादि अणुव्रतों से अपने गृहस्थधर्म का समुचित पालन करता हुआ त्याग-मार्ग की ओर प्रवृत्त होने का प्रयत्न करता रहे और त्यागी-वर्ग अपनी सम्यक्चारित्र-विशुद्ध-चर्या से गृहस्थों को विरागपथ का औचित्य-शिक्षण करते रहें। राग अपनी निरंकुशता से इतना प्रबल एवं अनियंत्रित (स्फीत) न हो उठे कि लोक में बुद्धिजीवी मानवजाति में 'मत्स्यन्याय' चल पड़े। इसलिए त्यागियों को आत्मचिन्तन करते हुए धर्मवर्तना के मूल श्रावकों की शास्त्र-प्रवचन द्वारा आत्मा और संसार के विषय में ज्ञान-चेतना को परिष्कृत करते रहना चाहिए। क्योंकि सर्वहितैषी होने पर भी धर्म को ग्रहण करते रहना मानव-स्वभाव के नितान्त अनुकूल नहीं कहा जा सकता। कभी प्रमाद, कभी कालदोष, कभी अशुभ कर्मबन्ध और कभी ज्ञानावरण प्राणियों के आस्थाशील मानस में भी शैथिल्य उत्पन्न कर देते हैं। आचार्य अकलंकदेव ने न्यायशास्त्र को अपने समय में विपन्न पाया और अनुभव किया कि गुणद्वेषियों ने अज्ञान का (लोकव्याप्त अज्ञता का) दुर्लाभ उठाकर उसे विकृत कर दिया है, असम्यक्त्व की ओर घसीट ले गये हैं। ऐसे समय में सम्यक् श्रमपूर्वक उन्होंने तथा तादृशं ज्ञान-सामर्थ्य सम्पन्न अन्य विद्वद्भटों ने उसकी वास्तविकता को प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 19 Jain Educétion International FON P ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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