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समझकर' सहनशीलता का पाठ भी पढाता है। और यही सहनशीलता व्यक्ति के व्यक्तित्व में ऐसे संस्कार उत्पन्न करती है, जिससे उसकी सामाजिक व्यवस्था के अंग के रूप में उपादेयता बढ़ जाती है।
जैसे एक नगर में बढ़ई, लोहार, चर्मकार, व्यापारी, मजदूर, प्रशासक आदि अनेक भिन्न प्रकृति के लोगों का सहावस्थान हुये बिना और इनकी एक-दूसरे के प्रति अपने-अपने कार्य एवं स्वरूप को सुरक्षित रखते हुये अविरोधी दृष्टि हुये बिना समाज का ढाँचा निर्मित ही नहीं हो सकता है. अत: ‘समाज' के वर्तमान स्वरूप में अनेकान्त-दृष्टि की अपरिहार्यता सिद्ध होती है। आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो अनेकांतवाद की सर्वाधिक मुखर स्वीकृति मिलती है; क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी दल एक ही जगह बैठकर एक ही संविधान की शपथ लेकर एक राष्ट्र की भावना से अपनी-अपनी विचारधारा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति करते हैं। वस्तुत: उनमें से राष्ट्रीयता का विरोध कोई नहीं करता, अत: उन्हें परस्पर विरोधी होते हुये भी एक ही राष्ट्र का सांसद कहा जाता है। इसप्रकार अनेकांतवाद की दृष्टि व्यक्ति, समाज, राष्ट्र इन सभी के संरचना का मूल आधार है। तथा संयुक्त राष्ट्र का सिद्धांत भी परस्परं विरुद्ध या भिन्न प्रकृतियों के होते हुये भी सह-अस्तित्व की भावना की स्वीकृति पर आधारित है। इसप्रकार अनेकांतवाद का वैश्वीकरण हमें परिलक्षित होता है। संदर्भग्रंथ-सूची 1. धवला. 15/25/1। 2. समयपाहुड, आत्मख्याति टीका, परिशिष्ट । 3. राजवार्तिक, अध्याय 1, सूत्र 6-7 की वार्त्तिक 351
बाल्मीकि रामायण। 5. हाथीगुम्फा अभिलेख।
गिरनार का अभिलेख। 7. तत्वार्थसूत्र । 8. राजवार्तिक, अध्याय 1, सूत्र 6 से 8, पृष्ठ संख्या 36 । 9. वही, अध्याय 1, सूत्र 6, वार्तिक 9 से 12 । 10. वही. अध्याय 1, सूत्र 6, वार्तिक 14; तथा गीता. 13/14-16. एवं ईशोपनिषद्, 8 । 11. राजवार्तिक. अध्याय 1. सूत्र 6 से 8. पृष्ठ संख्या 36। 12. द्रष्टव्य, समयसार परिशिष्ट । 13. स्वयंभूरतोत्र. कारिका 98 । 14. पंचास्तिकाय-तत्त्वप्रदीपिका. गाथा 21 । 15. पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध, गाथा 227 ।
Jain प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) * महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 121
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