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किया तुमने जीवन का शिल्प, खिरे सब मोह, कर्म और गात" । तुम्हारा पौरुष झंझावात, झड़ गये पीले-पीले पात ॥ नहीं प्रज्ञा - आवर्तन शेष, हुए सब आवागमन अशेष । अरे प्रभु ! चिर-समाधि में लीन, एक में बसते आप अनेक ॥। तुम्हारा चित्- प्रकाश कैवल्य, कहैं तुम ज्ञायक लोकालोक । अहो ! बस ज्ञान जहाँ हो लीन, वही है ज्ञेय, वही है भोग ॥
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योग - चांचल्य" हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल निष्कंप | अरे ! ओ योग रहित योगीश ! रहो यों काल अनन्तानन्त ॥ जीव कारण- परमात्म त्रिकाल, वही है अन्तस्तत्व अखंड | तुम्हें प्रभु ! रहा वही अवलम्ब, कार्य परमात्म हुए निर्बन्ध | पुनीत ।
अहो ! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल अतीन्द्रिय सौख्य चिरंतन भोग, करो तुम धवल महल के बीच ॥ उछलता मेरा पौरुष आज, त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ | अरे! तेरी सुख- शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम प्रभात || प्रभो ! बीती विभावरी" आज, हुआ अरुणोदय शीतल छाँव । झूमते शांति-लता के कुंज, चलें प्रभु ! अब अपने उस गाँव ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद प्राप्तये जयमालाऽर्घ्यं. चिर - विलास चिब्रह्म में, चिर- निमग्न भगवंत । द्रव्य २७ - भाव स्तुति से प्रभो ! वंदन तुम्हें अनन्त ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि )
जिनपूजा में जिनेन्द्र भगवान के प्रति बहुमान एवं उनके वीतरागी गुणों की महिमा पूर्वक निर्मलभावों की उपस्थिति रहना चाहिए, कोरी क्रियामात्र नहीं होनी चाहिए ।
२०. सुन्दर रचना २१. शरीर २२. तूफान २३. ज्ञप्ति परिवर्तन । २४. आत्म प्रदेशों का कम्पन, २५. आठों गुण, २६. रात, २७. उत्कृष्ट भक्ति परिणाम, २८. निज शुद्धात्म संवेदन ।
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