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जगाया तुमने कितनी बार, हुआ नहिं चिर-निद्रा का अन्त । मदिर१५ सम्मोहन ममता का, अरे ! बेचेत पड़ा मैं सन्त ।। घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान । निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ।। ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम ।
अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ।। किंतु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी१६ गहल अनन्त ।
अरे ! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी बसन्त । नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति। क्षम्य कैसे हों ये अपराध ? प्रकृति की यही सनातन रीति॥ अतः जड़ कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश ।
और फिर नरक निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश ।। घटाघन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा१७ मेरे शीश । नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनन्ती मीच ।। करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव। अन्त में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव ॥ दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान । शरण जो अपराधी को दे, अरे ! अपराधी वह भगवान ।। अरे ! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव । शुभाशुभ की जड़ता तो दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ।। अहो ! 'चित्' परम अकर्तानाथ, अरे ! वह निष्क्रिय तत्त्व विशेष। अपरिमित अक्षय वैभवकोष, सभी ज्ञानी का यह परिवेश ।। बताये मर्म अरे ! यह कौन ? तुम्हारे बिन वैदेही नाथ । विधाता शिव-पथ के तुम एक, पड़ा मैं तस्कर दल के हाथ ।। १५. मादक १६. तोता और बन्दर जैसी १७. बिजली १८. मृत्यु, १६. अनुभूति
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