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(७६) लगभग, मि० वीरचंद गांधी चीकागोसे आके, यहां श्रीमहाराजजी साहिबको मिले, और अपनी काररवाई, सुनाई. सुनके श्रीमहाराजजी साहिबको इतना हर्ष प्रकर्ष हुआ,जो लिखनेसें बाहिरहै,
चौमासे बाद भी कितनाक समय शहेर अंबालाही रहे. क्योंकि, संवत् १९५२ का मगसर सुदि पूर्णिमाको, "श्रीसुपार्श्वनाथ सप्तम तीर्थंकरकी जिन प्रतिमाको नूतन जिन मंदिरमें स्थापन करनेका मुहूर्त था. तिस मुहूर्तपर वहां के श्रावकोंने अपूर्वही रचना करीथी. जो समग्र उमरमें भी देखने में नहीं आई थी. एक साक्षात् देवलोकका नमुना बना दियाथा. दूर दूरसे यावत् देश गुजरात-मेहसाणासे चांदीका रथ वगैरह असबाब, मंगवायाथा. निर्विघ्नपणेसें विधिपूर्वक पूर्वोक्त मुहूर्त साधके, श्री सूरिमहाराज, लुधीयाना शहेरमें आये. इनके शुभागमनसें आनंदित होकर श्रावक समुदायने, किसी सांसारिक कार्यके सबबसे अपनी ज्ञाति (बिरादरी) में कितनेही वर्षोंसे जो झगडा पडाथा, सो सलाह संप करके दूर कर दिया, और "श्री कलिकुंडपार्श्वनाथ " (जिसके साथ की दो मूर्ति, देश गुजरातमें भावनगरके पास वरतेज गाममें, श्रीसंभवनाथके जिन मन्दिरमें, देखनेमें आती है. ) का जिन मन्दिर बनवाना प्रारंभ किया. इस जिन मान्दरके प्रारंभमें अग्रता, रामदत्तामल्ल क्षत्रीय, जिसको श्रीमहाराजजी साहिबने जैनधर्मानुरागी बनायाहे, तिसकी है. क्योंकि, इसने अपनी दो दुकानें, श्री जिन मन्दिर बनानेके वास्ते प्रथम दी. तदनन्तर लाला गोपीमल्लके पुत्र,खुशीराम वगैरहने अपनी दो दुकानें दी.बाद सकल श्रीसंघने मदद देकर, श्रीजिनमन्दिर बनाना सुरू करदिया. यहां बहुत अन्यमति लोक भी, व्याख्यानमें आतेथे.क्योंकि, इस पंजाब देशमें प्रायःइतना पक्षपात नहीं है. किंतु मत मतांतरोंका जोर होनेसे, हर एक मतवालेके पास, हरएक मतवाला प्रायः चरचा वार्ता करनेके वास्ते आता जाता है.इस समय जितनी मतमतान्तरोंकी प्रचोलना, देश पंजाबमें है, अन्य स्थानोमें नहीं होगी. श्री महाराजजी साहिबकी शांत मूर्तिको देख,और हरएक बातका पूरा पूरा दिलको शांति करनेवाला जबाब मुनके, और अपूर्व ज्ञानामृतका स्वाद चखके, शहेर लुधीआनेके लोक बहुत मोहित होगये, और चौमासेकी प्रार्थना करने लगे. श्री माहराजजी साहिबके मनमें भी, प्रार्थना मंजूर करनेकी सलाह होगई. परंतु इस अवसरमें, जिल्ला स्यालकोट गाम सनखतरेके रहनेवाले श्रावक, गोपीनाथ, अनन्तराम, प्रेमचंद, ताराचंद खण्डेरवाल भावडेकी विनती आई कि, “महाराजजी साहिब ! आपने शहेर अंबालामें, भाई अनन्तरा. मको फरमायाथा कि, 'यदि मन्दिरका काम तैयार होगया होवे, और प्रतिष्ठा करानेका इ. रादा होवे तो, संवत् १९५३ का वैशाख सुदि पूर्णिमाका मुहूर्त आताहै.' तब अनन्तरामने कहाथा कि, 'मैं घर जाकर सब भाइयोंसे सलाह करके आपको जवाब लिखवा देऊंगा. और मैं तो परम राजीहूं कि, धर्मका कार्य जलदी हो जाना अच्छा है, सो महाराजजी साहिब ! हम अनन्तरामका कहा सुनकर, परमानन्दको प्राप्त हुवे हैं. हमारे भाग्यमें ऐसा दिन आ जावे तो,और क्या चाहिये? हमको आप साहिबका हुकम मंजूर है, आपका फरमाया मुहूर्त हमको मान्यहै, परन्तु आप जानते हैं कि हमलोक अनजान हैं. क्या करना, और क्या नहीं हम कुच्छ जानते नहीं है. इतना तो, हमको यकिन हैही कि, आप प्रतापी महाराजके प्रभावसे, हमरा सर्व कार्य सानन्द समाप्त हो जायगा. तथापि हम, पामर सेवक, आपके चरणोंमें सीस रखके, प्रार्थना
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