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________________ स्व० मी. वीरचंद राघवजी गांधी, बी. ए., एम. आर. ए. एस. इन वीर पुरुषका जन्म महुवा-काठीआवाडमें ता. २५ अगस्त सन १८६४ ई. को हुवा था. इनके पिता बडे धर्मात्मा थे. इन्होंने भावनगरमें सन १८८० में पहेले नंबर "मेट्रीक्युलेशन" में पास होकर सर जसवंतसिंहजी स्कालरशिप प्राप्त की; ये एल्फिन्स्टन कॉलेजसें बी. ए. पास करके सरकारी स्कालरशीपके भी भागी बने. सन १८८५ में जैन एसोसिएशन ऑफ इंडियाके ये सेक्रेटरी हुवे. सरकारी सोली. सीटरके वहां ये आरटीकल्ट कलार्क हुवे. इन्होंने पालीताणा जुलम केसमें और मखसीजी केसमें भी अच्छी मदद दी थी. - सन १८९१ में समतसीखरके तीर्थपर चरबीके कारखाने के मुकद्दमेंकी अपीलमें युक्तिके साथ रायबहादूर बद्रीदासजीको सहायता देकर जीत लिया. सन १८९३ में चीकागो-अमेरिकामें जब विश्व प्रदर्शनी हुइथी और वहांकी धर्मसमाज (World's Parliament of Religeons) में श्रीमद् आत्मारामजीको निमंत्रण आया तब जैन धर्मके प्रतिनीधि होकर आप चिकागो गये और अध्यक्ष डा. बॅरोझ आदिकी ओरसें अच्छा मान पाया. धर्मसमाजमें जैनधर्मपर एक सार गर्भित व्याख्यान दिया. अमेरिकामें दो वर्ष रहकर बोस्टन, वाशींगटन, न्युयोके, रोचेस्टर, क्लीवलेड, केसाडेगा, बटेवीया, आदि नगरोमें फिरकर आपने ५३५ भाषण दिये. किसी २ भाषणमें दस २ हजार मनुष्य एकत्र हो जातेथे. कई जगह जैन धर्मके अभ्यासके लिये क्लास खोले गये. चिकागो और केसाडेगासमाजकी ओरसें इनको पदक दिये गये थे. वॉशींगटनमें "गांधी फीलोसोफीकल सोसायटी" इन्होंने स्थापित की, जिसके अध्यक्ष वहांके पोस्टमास्तर जनरल मी. जोसफ स्टुअर्ट हुए. इनके उपदेशसें हजारों मनुष्य मांसाहार त्यागी ( वेजीटेरीयन ) हो गये, कई लोग ब्रह्मचर्यवृत पालने और नवकार मंत्रका ध्यान धरने लगे. सन १८९५ में साऊथ प्लेस चापल और रोयल एशिएटिक सोसायटीमें इन्होंने लंडनमें लॉर्ड रेके अध्यक्षपणेमें भाषण दिये, और ये सोसायटीके मेंबर नियत हुवे. फ्रांस, जर्मनी होते हुए, आप जुलाइ मासमें मुंबई आये. विलायतादि विदेशमें ये शुद्ध आहार लेते रहे हजारों विद्वानों के साथ परिचय करके बडा अनुभव लियाथा. बंबईमें पीछा आनेपर एक बडे बीर पुरुषके समान इनका आदर हुआ. जैनोंकी ओरसे शेठ प्रेमचंद रायचंदके सभापतित्वमें एक भारी सभामें ता. २०-७-९६ को एक "मानपत्र" दिया गया था. यहां आनेपर इन्होंने सोलीसीटरका अभ्यास पीछा आरंभ किया था. परंतु अमेरिकनोंने इनको वापस बुलाया तो जैनभाईयोंकी ओरसे अच्छा सत्कार और विदाई पाकर ये अपनी स्त्री और पुत्र मोहनको साथ लेकर गये. पंडित फतेहचंद लालन भी इनको लंडनमें जा मिले. अगस्त सन १८९८ में ये वापस आये. स्व० मी. जस्टीस महादेव गोविंद रानाडेके सभापतित्वमें ता. २३ सीतंबरको इनको मानपत्र दिया गया. दूसरेही दिन आप अमेरिकाको प्रयाण कर गये. हिंदुस्तानके दुर्भिक्ष पीडित लोकोंके फोटो पेश करके वहांके लोकोंको प्रेरणा करके आपने मकईकी स्टीमरे हिंदुस्तानको भिजवाई थी. हिंदकी स्त्रियोंको शिक्षा दिलानेकी ओर भी इन्होंने वहांके लोकोंका ध्यान आकर्षित किया था. आपने कई पुस्तक भी बनवाये हैं. आप बारीष्टरकी परिक्षा पास करके सन १९०१ में मुंबई पधारे. आतेही बीमार हो गये और वृद्ध अंधी माता, स्त्री, पुत्रादि कुटुंबको और समग्र जैन समुदायको शोकसागरमें इया गये. हाय ! धन्य है ये वीररनको ! एसे पुरुष सदा अमर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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