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पत्रिंशःस्तम्भः व्यवहारमात्रसे जाननी; परंतु निश्चयॐ नही. ऐसें यह नय, स्वीकार करता है. जातिशब्द जे हैं, वे क्रियाशब्दही हैं. 'गच्छतीति गौः' जो गमन करे सो गौ. 'आशुगामित्वादश्वः' आशु-शीघ्रगामी होनेसें अश्व. गुणशब्द जैसें 'शुचिर्भवतीति शुक्ल: ' शुचि होवे, सो शुक्ल. 'नीलभवनानीलः' नील होनेसें नील.। यदृच्छाशब्द जैसें ‘देव एनं देयात् यज्ञ एनं देयात् ' । संयोगी समवायीशब्द जैसें ‘दंडोस्यास्तीति दंडी, विषाणमस्यास्तीति विषाणी' अस्ति क्रियाको प्रधान होनेसें अस्तिअर्थमें प्रत्यय है. येह सर्व क्रियाशब्दही हैं. अस्ति भू इत्यादि क्रियासामान्यको सर्वव्यापी होनेसें. उदाहरण जैसे, इंदनके अनुभवनसें इंद्र, शकनक्रियापरिणत शक्र, पूरणप्रवृत्तको पुरंदर कहते हैं, इति. __अथ एवंभूताभास कहते हैं:-अपनी क्रियारहित, सो वस्तु भी, शब्दका वाच्य नही. तत्शब्दवाच्य यह नहीं है, ऐसा एवंभूताभास है. उदाहरण जैसे, विशिष्टचेष्टाशून्य घटनामक वस्तु, घटशब्दका वाच्य नहीं. घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूत क्रियासे शून्य होनेसें, पटवत्. इस वाक्यसें अपनी क्रियारहित घटादिबस्तुको घटादिशब्दवाच्यताका निषेध करना प्रमाणबाधित है. ऐसें एवंभूताभास कहा है, इति.
इन सातों नयोंमेंसें आदिके चार नय, अर्थ निरूपणेमें प्रवीण होनेसें, अर्थनय हैं. अगले तीन नय, शब्दवाच्यार्थगोचर होनेसें, शब्दनय हैं.
अथ इन पूर्वोक्त नयोंके कितने भेद हैं, सो लिखते हैं:गाथा ॥
इक्केको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव ॥
अन्नो वि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥१॥ अर्थः-नैगमादि सातों नयोंके एकैकके प्रभेदसें सौ सौ भेद हैं, सर्व मिलाके सातसौ (७००) भेद होते हैं. प्रकारांतरसें पांचही नय होते हैं. सो यदा शब्दादि तीनोंको एकही शब्दनय, विवक्षा करीये, और एकैकके सौ सौ भेद करीये, तब पांचसो भेद नयोंके होते हैं. ऐसेंही
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