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तत्त्वनिर्णयप्रासादअनुमान अष्टादशसहस्र (१८०००) प्रमाण है. यहां तो, विस्तारके भयसें ज्ञाननय क्रियानयका किंचिन्मात्र स्वरूप लिखते हैं.
नायंमिइत्यादिव्याख्या-सम्यक्प्रकारसे उपादेय हेयके स्वरूपको जानके पीछे, इस लोकमें उपादेय, फूलमाला स्त्री चंदनादि; हेय त्यागनेयोग्य, सर्प विष कंटकादि; और उपेक्षा करनेयोग्य, तृणादि; परलोकमें ग्रहण करनेयोग्य, सम्यग्दर्शन चारित्रादि; नही ग्रहण करनेयोग्य, मिथ्यात्वादि; उपेक्षणीय, स्वर्गलक्ष्म्यादि; ऐसे अर्थमें यत्न करना, अर्थात् ज्ञानसें इन वस्तुयोंको यथार्थ जानना, ऐसा जो उपदेश, सो ज्ञाननय जानना. इत्यक्षरार्थः॥ ___ भावार्थ यह है कि ज्ञाननय, ज्ञानको प्रधान करनेवास्ते कहता है. इसलोक परलोकमें जिसको फलकी इच्छा होवे, तिसको प्रथम सम्यग्ज्ञान हुएही अर्थमें प्रवर्त्तना चाहिये, अन्यथा प्रवृत्ति करे फलमें विसंवाद होनेसें, अयुक्त है.
यदुक्तमागमे ॥ " पढमं नाणं तओ दया इत्यादि ॥" प्रथम ज्ञान पीछे दया.।
तथा । " जंअन्नाणीत्यादि ॥"-जितने कर्म, अज्ञानी कोडों वर्षों में जपतपादिकसें क्षय करता है, उतने कर्म, ज्ञानवान्, त्रिगुप्त हुआ, एक उत्स्वासमें क्षय करता है. तथा ॥
पावाओ विणिउत्ति पवत्तणा तहय कुसलपक्खमि ॥ .. विणयस्स य पडिवत्ती तिन्निवि नाणे विसप्पंति ॥ १॥
भावार्थः-पापसे निवर्त्तना-हटजाना, कुशलकाममें प्रवृत्त होना, विनयकी प्रतिपत्ति, येह तीनोंही ज्ञानके आधीन है। अन्योंने भी कहा है।
विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता ॥ मिथ्याज्ञानप्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनातू ॥१॥
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