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तत्त्वनिर्णयप्रासादवास्ते नही मानता है. अथवा ऋजु अवक्र श्रुत है इसका, सो ऋजुश्रुत, शेष ज्ञानोंमें मुख्य होनेसें. तथाविध परोपकार साधनसें, श्रुतज्ञानहीको ज्ञान मानता है. परकी वस्तुसे अपना कार्य सिद्ध नहीं होता, इसवास्ते परकी जो वस्तु है, सो वस्तु नही. तथा भिन्नलिंग भिन्नवचनवाले शब्दोंकरके एकही वस्तु कहता है, 'तटः तटीतटं' इत्यादि 'गुरुः गुरू गुरवः' इत्यादि. तथा इंद्रादिके नामस्थापनादि जे निक्षेप भेद है, उनको पृथक् २ मानता है. आगे जे नय कहेंगे, सो अतिशुद्ध होनेसें लिंगवचनके भेदसें वस्तुका भेद मानते हैं, और नाम स्थापना द्रव्य इन तीनों निक्षेपोंको नही मानते हैं. इति ऋजुसूत्र.।४।
अर्थको गौणपणे, और शब्दको मुख्यपणे जो माने, सो नय भी, उपचारसे शब्दनय कहा जाता है. यह नय, वर्तमान वस्तुको ऋजुसूत्रसें विशेषतर मानता है. तथाहि । 'तटः तटी तटं' इत्यादि शब्दोंके भिन्नही वाच्य मानता है, भिन्नलिंगवृत्ति होनेसें, स्त्रीपुरुष नपुंसकशब्दवत्. ऐसें यह नय मानता है. तथा 'गुरुः गुरू गुरवः' यहां भी अभिधेयका भेद है, वचनका भेद होनेसें 'पुरुषः पुरुषौ पुरुषाः' इत्यादिवत्. तथा नाम १, स्थापना २, द्रव्य ३, निक्षेप नही मानता है, कार्यसाधक न होनेसें; आकाशपुष्पवत्. पिछले नयसें विशुद्ध होनेसें इसका मानना विशेषतर है, समानलिंगवचनवाले बहुतसे शब्दोंका एक अभिधेय शब्दनय मानता है, जैसें इंद्र शक पुरंदरइत्यादि. इति शब्दनय.। ५।
वत्थूइत्यादि-वस्तु, इंद्रादि, तिसका संक्रमण अन्यत्र शक्रादिमें जब होवे, तब अवस्तु होवे; समभिरूढनयके मतमें. यह नय, वाचकशब्दके भेद हुए, वाच्यार्थका भी भेद मानता है. शब्दनय तो, इंद्रशक्रपुरंदरादि शब्दोंका वाच्यार्थ एकही मानता है, परंतु यह समभिरूढनय, वाचकके भेदसें वाच्यका भी भेद मानता है. 'इंदतीति इंद्रः, शक्कोतीति शक्रः, पुरं दारयतीति पुरंदरः'. परमैश्वर्यादिक भिन्नही यहां प्रवृत्तिके निमित्त है. जेकर एकार्थिक मानीये तो, अतिप्रसंगदूषण होता है. घटपटादि शब्दोंको भी एकार्थिताका प्रसंग होवेगा. ऐसे हुए, जब इंद्रशब्द शक्रशब्दके साथ,
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