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________________ तत्त्वनिर्णयप्रासादपूर्वापरपर्यायोंमें एक अनुगत उन उन पर्यायोंको प्राप्त होवे, इस व्युत्पत्तिसें त्रिकालानुयायी, जो वस्त्वंश है, सो उद्धृतासामान्य कहा जाता है. उदाहरण जैसे कटककंकनमें सोही सोना है. अथवा सोही यह जिनदत्त है. तहां तिर्यक्सामान्य तो, प्रतिव्यक्तिमें सादृश्यपरिणतिलक्षण व्यंजनपर्यायही है. क्योंकि, व्यंजनपर्याय, स्थूल है, कालांतर स्थायी है, शब्दोंके संकेतके विषय है, ऐसें प्रावचनिकोंमें अर्थात् जैनाचार्यों में प्रसिद्ध होनेसें. और उर्द्धतासामान्य तो, द्रव्यहीको विवक्षासें कहता है. और विशेष भी, सामान्यसें विसदृश विवर्त्तलक्षण व्यक्तिरूप पर्यायोंके अंतर्भूतही कहे हैं. इसवास्ते द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयोंसें, अधिक नयोंका अवकाश नहीं है. अथ सात नयकी संख्या कहते है:-द्रव्यार्थिकनयके तीन भेद हैं. नैगम (१) संग्रह (२) व्यवहार (३). पर्यायार्थिकनयके चार भेद हैं. ऋजुसूत्र (१) शब्द (२) समभिरूढ (३) एवंभूत (४). येह सर्व सात नय हुए. पांच भी नयभेद होते हैं, षट् भेद भी हैं, चार भेद भी हैं; यह कथन प्रवचनसारोद्धारवृत्तिमें विस्तारसहित है, सो आगे कहेंगे. यदुक्तमनुयोगतद्वृत्त्यादिषु ॥ णेगेहिं माणेहिं मिणई इति गमस्स य निरुत्ती सेसाणंपि णयाणं लक्खणमिणं सुणह वोच्छं ॥१॥ संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बिंति वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सवदवेसु ॥२॥ पच्चुपन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयवो इच्छइ विससियतरं पच्चुपन्ननओ सदो ॥ ३ ॥ _वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू णए समभिरूढे वंजणअत्थतदुभए एवंभूओ विससति ॥४॥ * णायमि गिण्हियवे अगिण्हियवे य इत्थ अत्थंमि जइयवमेव इइ जो उवऐसो सो नओ नाम ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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