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________________ षत्रिंशःस्तम्भः। ७०१ अथ पुनः, जे शुद्धात्मस्वभावके प्रतिबंधक कर्मशत्रुयोंको हणके निरुपमोत्तम केवलज्ञानादि स्वसंपद् पाकरके करतलामलकवत् समस्त वस्तुके समूहको विशेष जानते, और देखते हैं, और परमानंदसंदोहसंपन्न होते हैं, वे तेरमे चौदने गुणस्थानवी जीव, और सिद्धात्मा, शुद्ध स्वरूपमें रहनेसें परमात्मा कहे जाते हैं. ॥३॥ अथ बहिरात्मपणा छोडके अंतरात्माके होनेवास्ते तत्त्वज्ञान करना चाहिये; वे तत्व जीवाजीवादि नवतरेंके हैं. अथवा देव, गुरु, और धर्म येह तीन तत्त्व हैं. इनका स्वरूप जैनतत्त्वादर्शमें लिखा है, इसवास्ते यहां नही लिखते हैं. * अथवा धर्मास्तिकाय (१), अधर्मास्तिकाय (२), आकाशास्तिकाय (३), काल (४), पुद्गलास्तिकाय (५), और जीवास्तिकाय (६), येह षट् द्रव्यतत्व है. इन छहोंही द्रव्योंको जैनमतमें द्रव्य कहते हैं. जेजे अवस्था द्रव्यकी पीछे होगइ है, जेजे वर्तमानमें होरही है, और जेजे आगेको होवेगी, उनहीको जैनमतमें द्रव्यत्वशक्ति कहते हैं. यह द्रव्यत्वशक्ति, द्रव्यसे कथंचित् भेदाभेदरूप है. जैसे सुवर्णमें कटक कुंडलादि है. इस द्रव्यत्वशक्तिहीको, लोकोंने ईश्वर, जगत्स्रष्टा, कल्पन किया है; इसवास्ते भव्यजीवोंके बोधार्थ, किंचिन्मात्र, द्रव्यगुणपर्यायका स्वरूप, लिखते हैं. इस कथनमें जो आवेगी, सोही द्रव्यत्वशक्ति जान लेनी. तहां प्रथम द्रव्यका स्वरूप लिखते हैं। ___ “॥ सद्रव्यलक्षणम् ॥ "'सत्' जो हे, सोही द्रव्यका लक्षण है. 'सत्' किसको कहते हैं ? “॥ सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान व्याप्नोतीति सत् ॥” अपने गुणपर्यायको, जो व्याप्तहोवे, सो 'सत्' है. अथवा “ ॥ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥” जो उत्पति, विनाशा और स्थिरता, इन तीनोंकरी संयुक्त होवे, सो ‘सत् ' है. अथवा “॥ अर्थक्रियाकारि सत् ॥” जो अर्थक्रिया करनेवाला है, सो 'सत् ' है. * देखो जैनतत्त्वादर्शके १। ३१ ५। मे परिच्छेदमें. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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