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षट्त्रिंशःस्तम्भः।
६९३ उत्तरपक्षः-जो अनादि अविद्या, प्रतिभासांतःप्रविष्ट है, तब तो विद्याही होगई; तब तो असद्रूप (१) धर्मी, (२) हेतु, (३) दृष्टांत, आदिक भेद, कैसें दिखा सके ? जेकर कहोगे, प्रतिभासके बाहिरभूत है, तब तो अविद्या प्रतिभासमान है, वा अप्रतिभासमान है ? तिस अविद्याको प्रतिभासमानरूप होनेसें, अप्रतिभासमान तो नहीं; जेकर कहोगे, प्रतिभासमान है तो, तिसहीके साथ हेतु व्यभिचारी है. तथा प्रतिभासके बाहिरभूत होनेसें, तिसके प्रतिभासमान होनेसें जेकर तुमारे मनमें ऐसा होवे कि, अविद्या जो है, सो न तो प्रतिभासमान है, न अप्रतिभासमान है, न प्रतिभासके बाहिर है, न प्रतिभासांतःप्रविष्ट है, न एक है, न अनेक है, न नित्य है, न अनित्य है, न व्यभिचारिणी है, न अव्यभिचारीणी है, सर्वथा विचारके योग्य नहीं, सकल विचारांतर अतिक्रांतस्वरूप है, रूपांतरके अभावसें, अविद्या, जो है, सो निरूपतालक्षण है. यह भी तुमारी बडी अज्ञानताका विस्तार है. तैसी निरूपतास्वभाववालीको यह अविद्या है, यह अप्रतिभासमान है, ऐसे कथन करनेको कौन समर्थ है ? जेकर कहोगे, यह आविद्या प्रतिभासमान है, तो फिर, क्योंकर अविद्या, नीरूप सिद्ध होगी? क्योंकि, जो वस्तु जिस स्वरूपकरके प्रतिभासमान है, सो तिसही वस्तुका रूप है. तथा अविद्या जो है, सो विचारगोचर है, वा विचारगोचररहित है ! जेकर कहोगे, विचारगोचर है, तब तो नीरूप नही; जेकर विचारगोचर नहीं, तब तो तिसके माननेवाले महामूर्ख सिद्ध होवेंगे. जब विद्या, अविद्या, दोनोंही सिद्ध है, तब तो, एक परमब्रह्म, अनुमानसें कैसें सिद्ध हुआ ? इस कहनेसें जो उपनिषदमें एकब्रह्मके कहनेवाली श्रुति है, सो भी खंडन होगई. तथा “सर्व वै खल्विदं ब्रह्मेत्यादि" वचनको परमात्मासे अांतर होनेसें, द्वैतापत्ति होजावेगी. जेकर कहोगे, अनादि अविद्यासें ऐसा प्रतीत होता है, तब तो पूर्वोक्त दूषणोंका प्रसंग होगा; तिसवास्ते अद्वैतकी सिद्धि वंध्याके पुत्रकी शोभावत् है. इस कारणसें अद्वैतमत, युक्तिविकल है; इसवारते सुज्ञजनोंको अनुपादेय है. । इत्यद्वैतमतखंडनम् ॥
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