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तत्त्वनिर्णयप्रासादपैंतीसमें स्तंभमें संक्षेपसें हम लिखही आये हैं. इसवास्ते हे भव्य! जब शंकरस्वामीका चरित्रही असमंजस है, तो फिर, उनके कहे हुए मतको सयौक्तिक कौन समझ सकता है?
पूर्वपक्षः-“पुरुषएवेदं” इत्यादि श्रुतियोंसें अद्वैतही सिद्ध होता है.
उत्तरपक्षः-यह भी तुमारा कहना असत् है. क्योंकि, जो पुरुषमात्ररूप अद्वैततत्व होवे, तब तो, यह जो दिखलाइ देता है, कोई सुखी, कोई दुःखी, इत्यादि सर्व परमार्थसें असत् होजावेंगे; जब ऐसे होगा, तब तो, यह जो कहना है,
“॥ प्रमाणतोधिगम्य संसारनैर्गुण्यं तद्विमुखया प्र
ज्ञया तदुच्छेदाय प्रवृत्तिरित्यादि॥" इसका अर्थ संसारका निर्गुणपणा प्रमाणसें जानकर तिस संसारसें विमुखबुद्धि होकरके तिस संसारके उच्छेदवास्ते प्रवृत्ति करे इत्यादि-सो आकाशके फूलकी सुगंधिका वर्णन करनेसरीखा है. क्योंकि, जब अद्वैतरूपही तत्त्व है, तब नरकतिर्यंचादिभवभ्रमणरूप संसार कहां रहा ? जिस संसारको निर्गुण जानकर तिसके उच्छेद करनेकी प्रवृत्ति होवे !
पूर्वपक्षः-तत्त्वसें पुरुष अद्वैतमात्रही है, और यह जो संसार निर्गुण वर्णन किया है, और पदार्थोंके भेदका दर्शन, सदा सर्व जीवोंका जो प्रतिभासन हो रहा है सो, सर्व चित्रामकी स्त्रीके अंगोपांग उच्चनीचकीतरें, भ्रांतिरूप है.
उत्तरपक्षः-यह जो तुमारा कहना है, सो असत् है. क्योंकि, इस बातमें कोई यथार्थ प्रमाण नही है. तद्यथा-जेकर अद्वैत सिद्ध करनेवास्ते कोई पृथग्भूत प्रमाण मानोगे, तब तो, द्वैतापत्ति होवेगी; और प्रमाणके विना किसीका भी मत सिद्ध नही हो सकता है. यदि प्रमाणके विनाही सिद्ध मानोगे, तब तो, सर्ववादी अपने अपने अभिमतको सिद्ध कर लेवेंगे. तथा भ्रांति भी, तुमको प्र. माणभूत अद्वैतसे भिन्नही माननी चाहिये; अन्यथा तो, प्रमाणभूत अद्वैतही अप्रमाण होजावेगा. जब भ्रांति अद्वैतकाही रूप हुई, तब तो,
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