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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
आत्माकीतरें सद्रूप है; तो फिर एकही ब्रह्म अद्वैततत्त्व है, यह तुमारा कहना क्योंकर सत्य हो सकता है ? कदापि नही हो सकता है.
पूर्वपक्ष:- हमारी उपनिषदोंमें, तथा शंकरस्वामिके शिष्य आनंदगि रिकृत शंकर दिग्विजयके तीसरे प्रकरणमें लिखा है कि, “परमात्मा जगदुपादानकारणमिति ” परमात्माही, इस सर्व जगत्का उपादान का रण है. उपादान कारण उसको कहते हैं कि, जो कारण होवे, सोही कार्यरूप होजावे. इस कहनेसें यह सिद्ध हुआ कि, जो कुच्छ जगत् में है. सो सर्व, परमात्माही आप बन गया है; इसवास्ते जगत् परमात्मारूपही है.
उत्तरपक्षः - वाहरे नास्तिकशिरोमणे ! तुम अपने वचनको कभी शोच विचार कर कहते हो, वा नही ? क्योंकि, इस तुमारे कहनेसें तो, पूर्ण नास्तिकपणा, तुमारे मत में सिद्ध होता है. यथा, जब सर्व कुच्छ जगत्स्वरूप परमात्मारूपही है, तब तो, न कोई पापी है, न कोई धर्मी है, न कोई ज्ञानी है, न कोई अज्ञानी है, न तो नरक है, न तो स्वर्ग है, न कोई साधु है, न कोई चोर है, सत् शास्त्र भी नही, असत् शास्त्र भी नही, तथा जैसा गोमांसभक्षी, तैसाही अन्नभक्षी, जैसा स्वभार्यासें कामभोग सेवन किया, तैसाही माता बहिन बेटीसें किया, जैसा ब्रह्मचारी, तैसा कामी, जैसा चंडाल, तैसा ब्राह्मण, जैसा गर्दभ, तैसा संन्यासी; क्योंकि, जब सर्व वस्तुका कारण ईश्वर परमात्माही ठहरा, तब तो सर्व जगत् एकरस एकस्वरूप है, दूसरा तो कोई हैही नही.
पूर्वपक्ष:- हम एक ब्रह्म मानते हैं, और एक माया मानते हैं, सो, तुमने जो ऊपर बहुतसे आलजंजाल लिखे हैं, सो सर्व, मायाजन्य है, ब्रह्म तो, सच्चिदानंद एकही शुद्ध स्वरूप है.
उत्तरपक्षः- हे अद्वैतवादिन् ! यह जो तुमने पक्ष माना है, सो बहुत असमीचीन है. यथा-माया जो है, सो ब्रह्मसें भेद है, वा अभेद है ? जेकर भेद है तो, जड है, वा चेतन है ? जेकर जड है तो फिर, नित्य है, वा अनित्य है ? जेकर कहोगे नित्य है, तब तो, अद्वैतमतके मूलहीको
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