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________________ षटूत्रिंशः स्तम्भः । ६६१ “ ॥ स्यान्नास्त्येव सर्वमिति पर्युदासकल्पना विभजनेन हि तीयो भंगः ॥ २ ॥ " ८८ “ ॥ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमेण सदंशासदंशकल्पनाविभजनेन तृतीयो भंगः ॥ ३ ॥ ” 66 “ ॥ स्यादवक्तव्यमेवेति समसमये विधिनिषेधयोरनिर्वचनीयकल्पनाविभजनया चतुर्थो भंगः ॥ ४ ॥ 23 " ॥ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिप्राधान्येन युगपद्विधिनिषेधानिर्वचनीयख्यापनाकल्पनाविभजनया पं चमो भंगः ॥ ५ ॥ " 66 “ ॥ स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तमेवेति निषेधप्राधान्येन युगपन्निषेधविध्यनिर्वचनीयकल्पनाविभजनया षष्ठो भगः ॥६॥” “॥ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमात् सर्दशासदंशप्राधान्यकल्पनया युगपद्विधिनिषेधानिर्वचनीयख्यापना कल्पनाविभजया च सप्तमो भंगः ॥७॥ ' अथ अर्थसें प्रथमभंग प्रगट करते हैं:- प्रथमभंग विधिकी प्रधानतामें है. 'स्यात्' 'ऐसा अनेकांतका द्योतक, अर्थात् अनेकांतका प्रकाशक, अव्यय है. स्यात् इस कहने करके कथंचित् किसीप्रकार सें अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टयकर के घटादिवस्तु, अस्तिरूपही है; और अन्यवस्तुसंबंधी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्ट्यरूपकरके घटादिवस्तु, नास्तिरूपही है. - तथाहिघट जो है, सो, द्रव्य पृथिवीरूपकरके तो है, जलादिरूपकरके नही; क्षेत्र से पाटलिपुत्र के क्षेत्र से है, कान्यकुब्जके क्षेत्रसें नही; कालसें शिशरऋतुका बना हुआ है, वसंतऋतुका नही; भावसें रक्तरंगसें है, पतिरंगसें नही. ऐसेंही अन्यपदार्थ भी जानने. कथंचित् अर्थात् अपने द्रव्यादिचारोंकी अपेक्षाकरके, विद्यमान होनेसें, कथंचित् अस्तिरूप, घट है, और परद्रव्यादिचारों की अपेक्षाकरके, अविद्यमान होनेसें कथंचित् नास्तिरूप, घट है, ऐ " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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