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________________ पंचत्रिंशास्तम्भः ६५५ दिके नशे चढेमें लिखा मालुम होता है. क्योंकि, एसे वेषका धारक तो श्वेतांबर, दिगंबर, दोनों मतोंमें नहीं लिखा है. श्वेतांबरमतमें तो, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, चौलपट्टक, आदि चतुर्दश (१४) औधिक उपकरण, और कितनेही औपग्राहिक उपकरणधारी मुनि लिखा है. और दिगंबरमतमें पीछी कमंडलू आदिका धारी मुनि लिखा है. परंतु मस्तकमें बिंदु-तिलक करना, दोनों जगे, मुनिको निषेध है. इसवास्ते जैनमतका साधु तो, शंकरके पास गया, कोइ भी सिद्ध नहीं होता है. और श्रावक भी, नही. क्योंकि, जैन-श्रावक तो, नित्य त्रिकाल जिनेंद्रकी स्नानपूर्वक पूजा करनेवाला, स्फटिकरत्नसमान, अभ्यंतर बाहिरसें निर्मल लिखा है. उसके शरीरमें तो, मलका होना, कौपीनमात्र धारन करना, संभवही नही है. और शिष्योंका होना असंभव है. और दिगंबरमतका क्षुल्लक भी, नही था. क्योंकि, उसका भी वेष उक्त प्रकारका नही है. और सांप्रतिकालमें (आजकल) जे स्नानरहित, मलदिग्धांग, परमेश्वरकी पूजारहित, ढुंढकमतके माननेवाले प्रसिद्ध हैं, वे तो शंकरस्वामीके समयमें थेही नही, तो फिर, आनंदगिरिका लिखना भंगादिके नशेके वशसें नही तो, अन्य क्या है ? ___ और जो आनंदगिरिने, 'जिनदेव' शब्दकी व्युत्पत्ति आदि पूर्वपक्ष लिखा है, सो सर्व, स्वकपोलकल्पित महामिथ्या लिखा है. क्योंकि, वैसा पक्ष जैनीयोंको सम्मतही नही है. और शंकरस्वामीने उसका खंडन किया लिखा है, सो ऐसा है, जैसा वंध्यासुतका शृंगार वर्णन करना. इस हेतुसे शंकरविजयोंमें जो कथन जैन बौद्धमतकी बाबत लिखा है, सो सर्व, स्वकपोलकल्पित होनेसें मिथ्या है. वाचकवर्ग ! ऐसें न समझें कि, यह ग्रंथ लिखनेवालेने द्वेष बुद्धिसें शंकरस्वामीविषयक, और दोनों शंकरविजयोंविषयक लेख, लिखे हैं. परंतु जब तुम सर्व मतोंका पक्षपात छोडके मध्यस्थ होके विचारोगे, तब तुमको ग्रंथकारका लेख सत्य २ प्रतीत होजावेगा. ___ और कुमारिलभट्ट, और शंकरखामीकी बाबत, हिंदुस्थानका संक्षिप्त इतिहास लिखनेवाले डॉक्टर हंटर, सि, आई, इ; एल एल, डी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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