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________________ ६३० ऋ० अ० १ अ० ४ ० ७ । भाष्यका भाषार्थ :- हे सूर्य ! तूं तरणि-तरिता है, अन्य कोइ न जासके ऐसे बडे अध्व मार्ग में जानेवाला है; ॥ तथा च स्मर्यते ॥ तत्त्वनिर्णयप्रासाद योजनानां सहस्रे द्वे द्वे शते द्वे च योजने ॥ एकेन निमिषार्डेन क्रममाण नमोस्तु ते ॥ १ ॥ इति ॥ भाषार्थ :- दो सहस्र दो सौ और दो (२२०२), इतने योजन सूर्य आंख मीच खोले तिसकालसें आधे कालमें चलता है, इत्यादि । तथा ऋग्वेद अ० १ अ० ३ व० ६ में लिखा है कि, सुवर्णमय रथमें बैठके जगत्को प्रकाश करता हुआ, और देखता हुआ, सूर्य आजाता है । तथा देव दीपता हुआ सूर्य, प्रवणवत मार्गकरके जाता है, तथा उर्ध्वदेशयुक्त मार्गकरके जाता है, उदयानंतर आमध्यान्हतांइ उर्ध्व मार्ग है, तिसके उपरात आसायंकाल प्रवणमार्ग है, यह भेद है; और यजन करनेके देशमें सूर्य श्वेतवर्णके अश्वोंकरके जाता है, और दूर आकाश देशसें यहां आता है. । तथा ऋ० अ० २ अ० १ ० ५ में लिखा है । यथा ॥ “ ॥ सूर्योहि प्रतिदिनं एकोनषष्ट्याधिकपंच सहस्रयोजनानिमेरुं प्रादक्षिण्येन परिभ्राम्यतीत्यादि ॥" भावार्थ:-सूर्य प्रतिदिन ५०५९ योजन मेरुको प्रदक्षिणा करके परिभ्रमण करता है. इत्यादि. | तथा ऋ० अ० २ अ० ५ ० २ में लिखा है । यथा ॥ "|| अचरंती अविचले द्वे एवैते द्यावापृथिव्यौ । ” इत्यादि । अविचल अचल अर्थात् स्थिर दोही है स्वर्ग १, और पृथिवी २, इत्यादि ऋचायोंसें सूर्यका चलना, और पृथिवीका स्थिर रहना कथन किया है. ऐसेंही यजुर्वेदादिसंहिता, और ब्राह्मणभागों में सूर्य के चलनेका कथन है. बैबलके हिस्से तौरेत में भी लिखा है कि यहसुया जब लडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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