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तत्त्वनिर्णयप्रासादद्यमान न हुए, चुरावेगा क्या ? और अशुभनाम कर्मका आश्रव (आग. मन) किसको होवेगा ? तब तो, स्वामी अकलंकदेवका लिखना तुमारी श्रद्धा मूजिव मिथ्या ठहरेगा ! इसवास्ते सिद्ध होता है कि, दिगंबरोंकों अपने चलाये-माने मतका आग्रहही है, न तु न्यायबुद्धि.॥
प्रश्नः-जिनवरकी प्रतिमाको लिंगका आकार करना चाहिये. क्योंकि, भगवान् तो, दिनरात्र वस्त्ररहितही होते हैं. इसवास्ते जिस जिनप्रति माको लिंगका आकार न होवे, सो जिनप्रतिमाही नहीं है. क्योंकि जिनवरके रूपसमानही जिनबिंब बनाना चाहिये; अन्यथा ध्यानमें विलंब होता है. इसवास्ते वस्त्रादिककी शोभा करे, स्थिर ध्यान नही हो सकता है.
उत्तरः-जिनेंद्रके तो अतिशयके प्रभावसे लिंगादि नही दीखते हैं, और प्रतिमाके तो अतिशय नही है, इसवास्ते तिसके लिंगादि दीख पडते हैं; तो फिर, जिनवरसमान तुमारा माना जिनबिंब कैसे सिद्ध हुआ? अपितु नही सिद्ध हुआ. और तुमारे मतके खडे योगासन लिंगवाली प्रतिमाके देखनेसें, स्त्रियोंके मनमें विकृति (विकार) होनेका भी संभव है; जैसे सुंदर भग कुचादि आकारवाली स्त्रीकी मूर्ति देखनेसें पुरुषके मनमें विकृति होवे है. और लिंग देखनेसें जिनप्रतिमा, सुभग भी नही दीखती है. और उदयपुरके जिलेमें वागडदेशमें तुमारे मतके लिंगाकार प्रकट वाले नेमीश्वरादिके खडे योगके ऐसें बिंब हैं कि जिनके दर्शन करने वास्ते सगे बहिनभाइ भी प्रायः साथ एककालमें नही जाते हैं. और अन्यमतवाले भी, ऐसे बिंबको देखके उपहास्य करते हैं. यद्यपि महादेवका केवल लिंगही अन्यमतवाले पूजते हैं, परंतु जिसने यह शिवजीका लिंग है, ऐसा नहीं सुना है, वो लिंगको प्रथमही देखनेसें नहीं जान सकता है कि, यह किसीका लिंग है. क्योंकि, उसमें लिंगकी पूरी पूरी आकृति नहीं है; किंतु केवल अव्यक्त एक पत्थरकी लंबीसी पिंडी दीखती है. तथापि, प्रायः संन्यासी लोक, नग्न होनेसें तिसके दर्शन नहीं करते हैं; ऐसा सुनते हैं.
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