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________________ तत्त्वनिर्णयप्रासाद उत्तरः- प्रथम तो श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायजी, जो के स्याद्वादकल्प लता १, वैराग्यकल्पलता २, अध्यात्मोपनिषद् ३, अध्यात्मसार ४, अध्यात्मरहस्योपदेश ५, ज्ञानसार, ६, ज्ञानबिंदु ७, नयोपदेश ८, नयप्रदीप ९, अमृततरंगिणी १०, समाचारी ११, खंडखाद्य १२, धर्मपरीक्षा १३, अध्याममतपरीक्षा १४, पातंजलचतुर्थपादवृत्ति १५, कर्मप्रकृतिवृत्ति १६, अनेकांतजैनमतव्यवस्था १७, देवतत्त्वनिर्णय १८, गुरुतत्त्वनिर्णय १९ धर्मतत्वनिर्णय २०, तर्कभाषा २१, द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका २२, अष्टक २३, षोडशकवृत्ति २४, इत्यादि शत (१००) ग्रंथके कर्त्ता, और षट्दर्शनतर्कके वेत्ता, तथा काशी में सर्वपंडितोंने जिनको जयपताका, और न्यायविशारदकी पदवी दीनी थी, ऐसे श्रीयशोविजयोपाध्यायजी लिखते हैं कि, जितने दिगंबरोंके तर्कशास्त्र हैं, वे सर्व, श्वेतांबरोंके तर्कशास्त्रोंने दले हुए, अर्थातू खंडन करे हुए हैं; तिनमेंसें नमूनामात्र यहां लिख दिखाते हैं, अ । केवलीको कवल आहारके हुए, सर्वज्ञपणेके साथ विरोध होता है, ऐसे मानते हुए दिगंबरों का खंडन करते हैं. 1 नच कवलाहारवत्वेन तस्यासर्वज्ञत्वम् ॥ कवलाहारसर्वज्ञत्वयोरविरोधात् ॥ ५६६ व्याख्याः - केवलीको कवलाहारी होनेकरके, सर्वज्ञपणे केसाथ विरोध नही है सोही दिखाते हैं. कवलाहार, और सर्वज्ञपणेका जो विरोध, दिगंबर मानते हैं सो साक्षात् मानते हैं, वा परंपराकरके मानते हैं ? यदि आदि पक्ष दिगंबर मानेंगे, सो ठीक नहीं. क्योंकि, सर्वज्ञपणेके हुए केवलीको कवलाहार प्राप्ति नही होता है, यह बात नहीं है. और कवलाहार मिल तो सकता है, परंतु केवली खा नही सकता है, यह भी नही है. अथवा केवली खा तो सकता है, परंतु खानेसें केवलज्ञान दौड जायगा, इस शंकासें नही खा सकता है यह बात भी नहीं है; इन पूर्वोक्त तीनों बातों में हेतु कहते हैं; अंतराय कर्म, और केवलावरण कर्मोंका समूल नाश करनेसें, पूर्वोक्त तीनो बातें नही हो सकती है. जेकर दिगंबर दूसरे परंपराविरोधपक्षको अंगीकार करके विरोध कहे तो, सो भी बालकोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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