SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 631
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वनिर्णयप्रासादविचार करे तो सर्व सत्य २ वचन प्रतीत होते हैं, योगजीवानंदसरस्वति स्वामीवत्. पूर्वपक्षः-ऐसे महात्मा योगजीवानंदसरस्वतिस्वामीजी कौन है ? उत्तरपक्षः-संवत् १९४८ आषाढ सुदि १० मीका लिखा, एक पत्रं, गुजरांवाले होके हमारेपास माझापट्टीमें पहुंचा. तिस पत्रको वांचके हमने तिस लिखनेवाले निःपक्षपाती और सत्यके ग्रहण करनेवाले, महास्माकी बुद्धिको, कोटिशः धन्यवाद दीया, और तिसके जन्मको सफल माना. सो असलीपत्र तो, हमारे पास है; तिसकी नकल, अक्षर २, हम यहां भव्यजन पाठकोंके वाचनेवास्ते दाखिल करते हैं.॥ ___स्वस्ति श्रीमजैनेंद्रचरणकमलमधुपायितमनस्क श्रीलश्रीयुक्तपरिब्राजकाचार्य परमधर्मप्रतिपालक श्रीआत्मारामजी तपगच्छीय श्रीन्मुनिराज । बुद्धिविजयशिष्यश्रीमुखजीको परिव्राजकयोगजीवानंदस्वामीपरमहंसका प्रदक्षिणत्रयपूर्वक क्षमाप्रार्थनमेतत् ॥ भगवन् व्याकरणादि नानाशास्त्रोंके अध्ययनाध्यापनद्वारा वेदमत गलेमें बांध में अनेक राजा प्रजाके सभाविजय करे देखा व्यर्थ मगज मारना है । इतनाही फल साधनांश होता है कि राजेलोग जानते समझते हैं फलाना पुरुष वडा भारी विद्वान् है परंतु आत्माको क्या लाभ हो सकता देखा तो कुछ भी नही। आज प्रसंगवस रेलगाडीसें उतरके बठिंडा राधाकृष्णमंदिरमें बहुत दूरसें आनके डेरा कीया था सो एक जैनशिष्यके हाथ दो पुस्तक देखे तो जो लोग (दो चार अच्छे विद्वान् जो मुझसे मिलने आये) थे कहने लगे कि ये नास्तिक (जैन)ग्रंथ है इसे नहीं देखना चाहियेअंत उनका मूर्खपणा उनके गले उतारके निरपेक्ष बुद्धिके द्वारा विचारपूर्वक जो देखा तो वो लेख इतना सत्य वो निष्पक्षपाती लेख मुझे देख पडा कि मानो एक जगत् छोडके दूसरे जगत्में आन खडे हो गये ओ आबाल्यकाल आज ७० वर्षसें जो कुछ अध्ययन करा वो वैदिक धर्म बांधे फिरा सो व्यर्थसा मालूम होने लगा जैनतत्वादर्श वो अज्ञानतिमिरभास्कर इन दोनों ग्रंथोंको तमामरात्रिंदिव मनन करता बैठा वो ग्रंथकारकी प्रशंसा वखानता बठिंडे में बैठा हूं। सेतुबंधरामेश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy