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________________ द्वात्रिंशस्तम्भः। ५२३ शंकासमाधान लिख आए हैं. तथा तैत्तिरीय आरण्यकके १० मे प्रपाठकके अनुवाक ६३ में सायनाचार्य लिखते हैं.। । यथा ॥ - " ॥ कंथाकौपीनोत्तरासंगादीनां त्यागिनो यथाजातरूपधरा निग्रंथा निष्परिग्रहाः ॥” इति संवर्त्तश्रुतिः॥ __ भावार्थः-शीतनिवारणकथा, कौपीन, उत्तरासंगादिकोंके त्यागि, और यथा जातरूपके धारण करनेवाले, जे हैं, वे, निग्रंथ, और निष्परिग्रह, अर्थात् ममत्वकरके रहित होते हैं. यह लक्षण उत्कृष्ट जिनकल्पिका है. क्योंकि निग्रंथ जो शब्द है, सो जैनमतके शास्त्रोंमेंहि साधुपदका बाधक है, अन्यत्र नहीं. और अंग्रेज लोकोंने भी, यह सिद्ध करा है कि, 'निग्रंथ' शब्द जैनमतके साधुयोंकाही वाचक है. बौद्धलोकोंके शास्त्रमें भी 'निग्गंथनातपुत्त' अर्थात् निग्रंथज्ञातपुत्र इस नामसें जैनमतके २४ मे वर्द्धमान महावीरस्वामिको कथन करे हैं. और जैनमतके शास्त्रमें तो, ठिकाने २ 'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-निग्गंथाण महेसीणं'-इत्यादि पाठ आवे हैं. तथा प्रायःकरके पूर्वकालमें जैनमतके साधुयोंको निग्रंथही कहते थे, और सुधर्मास्वामी, जो श्रीमहावीरस्वामीके पांचमे गणधर हुए, उनोंकी शिष्यपरंपरामें जे साधु हुए, वे कितनेक कालपर्यंत निर्मंथगच्छके साधु कहाते थे; पीछे कारण प्राप्त होकर तिस निग्रंथगच्छका और नाम प्रसिद्ध हुआ, यावत् अद्यतन कालमें तपगच्छादि गच्छोंके नामसे कहे जाते हैं. तथा सिद्धांतसारमें मणिलाल नभुभाइ द्विवेदी भी लिखते हैं कि, ब्राह्मणोंके प्राचीन ग्रंथों में 'जैन' ऐसा नाम नही आता है; परंतु, विवसन, निग्रंथ, दिगंबर, ऐसा नाम वारंवार आता है. इससे भी निग्रंथशब्द, जैनमतानुयायी सिद्ध होता है. तब तो सिद्ध हुआ कि, जैनमत, श्रुतिस्मृतिसें भी प्राचीन है. तथा पूर्वोक्त हमारा लेख, “क्या जाने, कौनसी शाखामें क्या लिखा है ?” इत्यादि सत्य हुआ. तबतो, कोइ भी कहनेको सामर्थ्य नही है कि, जैनमत नूतन है, वा जैनमतका वेदादिकोंमें नाम भी नहीं है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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