________________
एकत्रिंशस्तम्भः।
४९७ जंतुरक्खणट्टाणेसु धम्मावगरणेसु संलग्गंतं अणुमोएमि कल्लाणेणं अभिनंदेमि ॥”
फिर परमेष्टिमंत्र पढके। __ “॥ जं मए इथ्थ भवे मणेणं वायाए कारणं दुटुं चिंतिअं दुटुं भासिअं दुटुं कयं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥” ___ “॥ मए इथ्य भवे मणेणं वायाए कारणं सुट्ट चिंतिअं सुट्ट भासि सुटु कयं तं अणुमोएमि कल्लाणेणं अभिनंदमि ॥” __ यहां पहिलां समारोपितसम्यक्त्व व्रतको भी, फिर सम्यक्त्व बतारोप करना. और जिसको पहिले सम्यक्त्व व्रतारोप न करा होवे, तिसको भी अंतकालमें सम्यक्त्व व्रतारोप करना योग्य है.। जिसको पहिलां व्रतारोप करा होवे, तिसको इस अंतसमयमें एकसौचौवीस अतिचारोंकी आलोचना करनी. । वे अतिचार आवश्यकादि सूत्रोंसें जान लेने । तदपीछे आलोचनाविधि करना, सो प्रायश्चित्तविधिसें जानना. । तदपीछे गुरु सर्व संघसहित वासअक्षतादि ग्लानके शिरमें निक्षेप करे. ॥ इत्यंतसंस्कारे आराधनाविधिः॥ तदपीछे ग्लान (रोगी-बीमार) क्षमाश्रमण परमेष्टिमंत्र पाठपूर्वक कहें ॥
आयरियउवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे अ॥ जे मे कया कसाया सवे तिविहेण खामेमि ॥ १ ॥ सवस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलिं करिय सीसे ॥ सवं खमावइत्ता खमामि सस्स अहयंपि ॥२॥ सव्वस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहियनियचित्तो ॥
सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयंपि॥३॥ “भयवं जं मए चउगइगएणं देवा तिरिआमणुस्सा नेरइआ चउकसाओवगएणं पंचिंदिअवसट्टेणं इहम्मि भवे अन्नेसु वा भवगहणेसु मणेणं वायाए काएणं दूमिआ संताविआ अभिताइया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org