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________________ (३७) हरो वरो ब्रह्म विवाह कर्ता, वैश्वानरो आहुतिदायकश्च ॥ तथापि वंध्या गिरिराजपुत्री, न कर्मणः कोपि बली समर्थः॥१॥ भावार्थ इसका यहहै-महादेव जिसका पति, साक्षात् ब्रह्माजीने जिसका विवाह किया, जिसके विवाहमें साक्षात् अग्नि देवताने आहुति दी, ऐसी पार्वती भी वांझ रही. इसवास्ते कर्मोंसे कोई भी अधिक बलवान् समर्थ नहीं है-इसवास्ते इस बातमें हमारा कोई भी जोर नहीं चलता है और इस लडकेकी बाबत जो तुम कहते हो, सो तो परमेश्वर जानते हैं, मुझको यह अपने दोनो लडकोंसे अधिक प्यारा है.” इत्यादि कितनीक बातें करके गणेशचंदजी तो चलेगये और आग्रेके किल्ले मेंही अंग्रेजोंके साथ लडाई करते हुए, आपसमें गोली लगनेसे गणेशचंदजी स्वधामको पहुंचगये !!! अब आत्मारामजी जोधामल्लके घरमें उनके पुत्रोंकी तरह पलने लगे, और जोधामल्लने भी अपने आपको सच्चा धर्मपिता प्रमाणित किया; और अपने बचनको पूरा कर दिखलाया. और अपने छोटे पुत्र “रलाराम” के साथ हिंदी इलम सिखलाया. इसवास्ते “आत्मारामजी" भी, जोधामल्लको अपने पिता मानते थे. और जोधामल्लका बडा पुत्र " वधावामा ११ आत्मारामजीसे बहुत भाईओंसे भी अधिक प्यार रखता था. इसवास्ते घरकी स्त्रियां भी, अपने लडकोंबालोंसे भी ज्यादा प्यार रखती थी; परंतु जोधामल्लके छोटे भाईका नाम, दित्तामल्ल होनेसे आत्मारामजीका दूसरा नाम दित्ता बदलके, “देवीदास” रखदिया था. जिनदिनोंमें देवीदास ( आत्मारामजी) जोधामल्लके घरमें पलतेथे, उस वखत जोधामल्ल, और तिसका परिवार, और जीरेके रहीस सब ओसवाल, ढूंढक मत (स्थानकवासी) को मानतेथे. __ *ढूंढकमतकी उत्पत्ति इस प्रकारमें है.-गुजरात देशके अहमदावाद नगरमें एक लौंका नामका लिखारी यतिके उपाश्रयमें पुस्तक लिखके आजीविका चलाताथा. एक दिन उसके मनमें ऐसी बेइमानी आई जो एक पुस्तकके सात पाने बिचमेंसे लिखने छोड दिये. जब पुस्तकके मालिकने पुस्तक अधूरा देखा, तब लौंके लिखारीकी बहुत निंदा की और उपाश्रयसे निकाल दिया, और सबको कह दियाकि, इस बेइमानके पास कोई भी पुस्तक न लिखावे.तब लौंका आजीविका भंग होनेसे बहुत दु:खी हो गया. और जनमतका बहुत द्वेषी बनगया. परंतु अहमदावादमें तो लौंकेका जारे चला नहीं. तब वहांसे (४५)कोशपर लीबडी गाम है, वहां गया. वहां लोंकेका संबंधी लखमसी बनिआ राज्यका कारभारी था, उसे जाके कहाकि, “ भगवान्का धर्म लुप्त हो गयाहै, मैने अहमदावादमें सच्चा उपदेश किया था.परंतु लोकोंने मुजको मारपीट के निकाल दिया; यदि तुम मुझे सहायता दो तो, मैं सच्चे धर्मकी प्ररूपणा करूं." तब लखमसीने कहा, “ तूं लींबडीके राज्यमें बेधडक तेरे सच्चे धर्मकी प्ररूपणा कर, तेरे खानपानकी खबर मैं रखंगा." तब लौंकेने संवत् १५०८ में जैनमार्गकी निंदा करनी शुरू करी. परंतु २६ वर्ष तक किसने भी इसका उपदेश नहीं माना. संबत् १५३४ में भूणा नामा बनिया लौंकेको मिला, उसने लोंकेका उपदेश माना, लौकेके कहनेसे बिना गुरूके दिये अपने आप बेष धारण कर लिया; और मुग्ध लोगोंको जैनमार्गसें भ्रष्ट करना शुरू किया. लौकेने ३१ शास्त्र सच्चे माने. व्यवहार सूत्रको मान्य नहीं किया. जिसका सबब यह है कि व्यवहार सूत्र में लिखाहै कि, “ तीन वर्ष दीक्षापर्यायवाले साधुको आचारप्रकल्प नामा अध्ययन पढाना कल्पता है, एवं चार वर्ष पर्यायवाले साधुको सूयगडांग पांच वर्ष पर्यायवालेको दशाश्रुतस्कंध-कल्पसूत्र (बृहत्कल्प ) व्यवहारसूत्र, विकृष्ट वर्ष पर्यायवालेको अर्थात् छ वर्षसें लेके नव वर्ष पर्यंत पर्यायवालेको ठाणांग-समवायांग, दश वर्ष पर्यायवालेको भगवतीसूत्र, एकादश वर्ष पर्यायवालेको खुड्डियाविमाण पविभत्ति-महल्लिया विमाण पविभत्तिअंगचूलिया-वंगचूलिया-विवाह चूलिया, द्वादश वर्ष पायवालेको अरुणोववाए-गरुलोववाए-धरणो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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